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________________ સ૨૦ भगवतीस तीति । 'दिट्ठी तिविद्या वि' दृष्टि त्रिविधाऽपि, सम्यग्मिथ्यामिश्रेति तिस्रोऽवि हृष्टस्तेषां भवन्तीति । 'तिन्नि नाणा विन्नि अन्नाणा भगणाए' त्रीणि ज्ञानानि - मतिश्रुतावधिरूपाणि, वथा - त्रीणि अज्ञानानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानि ऐतानि ज्ञानानि भजनया - विकल्पेन भवन्तीति । 'जोगो तिविहो वि' योगो मनोवाक्कायात्मकत्रिविधोऽपि भवति संज्ञित्वात् तथा च संज्ञिपश्चेन्द्रिय'तिर्यग्योनिकानां मनोयोगो वाग्योगः काययोग इति एते त्रयोऽपि योगा भवन्तीति 'भाव' | 'सेसं जहा असन्नीणं जाव अणुबंधो' शेषं यथा असंशिनां यावदनुबन्धः । शेषं यत् कथितम् तदतिरिक्तम् उपयोगसंज्ञादिकं सर्वमपि येनैव प्रकारेण असंज्ञिनां प्रकरणे कथितं तेनैव प्रकारेण तत्सवमिहापि ज्ञातव्यम् कियत्पर्यन्तम् असं ज्ञिप्रकरण ज्ञातव्यं तत्राह - 'जाब अणुबंधो, थावदनुबन्धः - अनुबन्धपर्यन्तं सर्वमपि थैव इहापि ज्ञातव्यमिति भावः । असंज्ञिपकरणापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह - 'नवरे' इससे वे जीव कृष्ण, नील, कापोतिक, तैजस पद्म और शुक्ल लेइया वाले होते हैं । 'दिट्ठी तिविहावि०- इनके सम्यक् मिथ्या और मिश्र ये तीन दृष्टियां होती हैं, 'तिन्नि नाणा तिनि अन्नाणा भयणाए' तीन ज्ञानमतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, और तीन अज्ञान मत्यज्ञान, श्रुताज्ञानं और विभङ्ग ज्ञान ये भजनासे होते हैं । 4 1 : 'जोगो तिविहो वि' मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये तीनों योग होते हैं' 'सेसं जहा असन्नीणं जाव अणुबंधो 'इस कथन के सिवाय और जो उपयोग संज्ञा आदि सम्बन्धी कथन है यह सब भी यहाँ जिस प्रकार से असंज्ञी जीवों के प्रकरण में कहा गया हैं, उसी प्रकार से अनुबन्ध द्वार तक कह लेना चाहिये, अब सूत्रकार असंज्ञि प्रकरण तीस, अयोति, तैक्स अने पद्म से सेश्याम वाणी होय छे. 'दिठ्ठी 'तिविद्दा वि०' तेथाने: सभ्य, सिथ्या, भने मिश्र से त्र- दृष्टियो हाय है. 'तिन्ति नाका' भति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, भने अवधि ज्ञान मे त्र ज्ञान होय छे,मने 'अयणाए' _लनाथी 'तिन्ति अन्नाणा' भतिज्ञान, श्रुत अज्ञान, ाने विलंग ज्ञान से अज्ञान होय छे. 'जोगो तिविह। वि० भने!योग, वथन योग, अने प्राय - योग में त्रयु योग होय छे से जहा अस'नीणं जाव अणु।' मा उथन शिवाय माडीनु ने उपयोग सज्ञा विगेरे સ'ખ'થ્રી ક્રન છે, તે બધુજ જે પ્રકારે અસરજ્ઞી જીવેાના પ્રકરણમાં કહેલ છે તે પ્રમાણે અહિયા અનુમધ દ્વાર સુધી' સમજી લેવુ'. C वे सूत्रार असज्ञी अरती ने विद्यक्षाणु यागु छे ते 'नंबरं' इत्याहि पाह द्वारा प्रगट हरे छे.-'नवरं पंच समुग्धाया आदिल्ला' असशी 1
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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