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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२१ व.१ ३.१ औषधिवनस्पतिशाल्यादिगतजीयम् २०३ नारकेभ्य आगत्य होत्पद्यन्ते किन्तु तिर्थइमनु'येभ्य आगत्यैवोत्पद्यते इति । तथा व्युत्क्रान्तिपदे देवानामपि वनस्पतिपुत्पनिरुक्ता इह तु देवानामुत्पत्तिन वक्तव्या। वनस्पतिमूले देवानामुत्पत्तेरभावात्, किन्तु पुष्पादि शुभस्थाने एन देवानामुत्पत्तिरतएवोक्तम् 'नवरं देववज्ज' नवरं-केवलदेवर्जम् अत्राध्येतव्यम् तत्र देवानामपि वनस्पत्यादौ उत्पत्तिरुक्ता इह तु सा न वक्तव्या एतावानेव भेद उभयत्रेति ! गौतमः पृच्छति-'ते णं भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त जीवा गत्यन्तरेभ्य आगत्य ये जीवा मूलतया समुत्पधन्ते ते जीवाः 'एगसमएणं केवइया उववज्जति' एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते एकस्मिन् समये कियतां जीवानामुत्पत्ति भवतीति मश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्ने] मूल में जो जीव उत्पन्न होते हैं वे जीव नरक से आकरके उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु तिर्थचगति एवं मनुष्यगति से आकर के ही वहां उत्पन्न होते हैं । तथा-व्युत्क्रान्ति पद में देवों की भी उत्पत्ति वनस्पतियों में कहीगई है परन्तु देवों की उत्पत्ति यहां नहीं कहनी चाहिये क्योंकि वनस्पतिमूल में देवों की उत्पत्ति नहीं होती है उनकी उत्पत्ति तो पुष्पादि रूप शुभस्थान में ही होती है इसीलिये ऐसा कहा गया है कि 'नवरं देवज' इत्यादि। अब गौतम! प्रभु से ऐला पूछते हैं-'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवाया उपवज ति' हे भदन्त ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अर्थात् गत्यन्तर से आकरके जो जीव मूलरूप से उत्पन्न होते हैं वे एक समय में वहां कितने उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोषमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि આ પ્રમાણે વર્ણન છે, શાલી વિગેરેના મૂળમાં જે જી ઉત્પન્ન થાય છે, તે જનરકથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી, પરંતુ તિર્યંચગતિ અને મનુષ્યગતિથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, તથા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં દેવોની ઉપત્તી પણ વનસ્પતિ માં કહી છે. પરંતુ દેવેની ઉત્પત્તી અહિયાં કહેવાની નથી. કેમકે વનસ્પતિના મૂળમાં દેવેની ઉત્પત્તી રહેતી નથી. તેઓની ઉત્પત્તી તે પુષ્પ વિગેરે शुलस्थानामा डाय छ, तथा मे वामां माय छे. 'नवर देववज्ज' डवे गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछे छे -'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति' लगवान् तेल मे समयमा 81 पन थाय छ? અર્થાત ગત્યન્તરથી આવીને જે છ મૂળરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ એક સમયમાં ત્યાં કેટલે ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે -
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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