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________________ प्रमेयंचन्द्रिका टीकां श०२० उ. १० सू०४ नैरयिकाणां द्वादशादिसमर्जितत्वम् १४९ द्वादशसमर्जिता न वा-नोद्वादशसमर्जितो न वा द्वादशकेन च नो द्वादशकेन च समजिताः किन्तु द्वादशकैः समर्जिताः४, द्वादशश्च नो द्वादशकेने च समजिता ५, भवन्तीति भावः । 'बेइंदियां जाव सिद्धा जहा नेरहया' द्वीन्द्रियां यावत् सिद्धा यथा नैरथिकाः, यथा नारकाणां द्वादशादिसमर्जितत्वविषयकाः पञ्चापि विकल्पा भवन्ति तथा द्वीन्द्रियजीवादारभ्य सिद्धपर्यन्तेष्वपि द्वादशादिसमंजितत्वविषयकाः पञ्चापि विकल्पाः समुन्नेतव्या इति । अथैतेषामल्पबहुस्वमतिदेशेनाह - 'एएसि णं भंते ! इत्यादि । 'एएस भंते । नेरयाणं' एतेषां खलु भदन्त ! नैरयिकाणाम् 'बारससमज्जियार्ण' द्वादशसमर्जितानां द्वादशसमर्जितादिपश्च विकल्पविकल्पितानाम्, तथा 'सन्वेसिं' वनस्पतिकायिक जो जीव हैं, वे भी द्वादशसमर्जित नहीं हैं, नो द्वादशसमर्जित नहीं हैं, और न एक द्वादशक से और एक नीं द्वादशक से समर्जित हैं । किन्तु वे अनेक द्वादशों से समर्जित हैं ४ और अनेक द्वादशों से एवं एक नो द्वादश से समर्जित हैं । 'वेइंदिया जाव सिद्धा जहा नेरइया' द्वीन्द्रिय यावत् सिद्ध ये नारकों के जैसे हैं - अर्थात् जिस प्रकार नारकों में द्वादशादि समर्जित विषयक पांचों विकल्प होते हैं, उसी प्रकार ही द्वीन्द्रिय जीव से लेकर सिद्धपर्यन्त जीवों में भी वादशादि समर्जित विषयक पांचों विकल्प होते हैं ऐसा जानना चाहिये । अब सूत्रकार इन जीवों के द्वादशादि समर्जित विकल्पों में अल्प बहुत्व का कथन करते हैं - 'एएसि णं भंते ! नेरइयाणं- पारससमंजियोग' द्वादशसमर्जित आदि विकल्पों वाले इन नैरथिकों का तथा 'सन्वेसिं' પશુ દ્વાદશ સમત હેાતા નથી. ના દ્વાદશ સમત હાતા નથી અને એક દ્વાદશથી અને એક ને! દ્વાદશથી પણુ સમજીત હાતા નથી. પરંતુ तेथे! अनेङ द्वादृशोथी समलत होय छे. 'बेहंदिया जाव सिद्धा जहा नेरइयां' એઇંદ્રિય યાવત્ સિદ્ધો નારકાની જેમજ છે. અર્થાત્ જે રીતે નારકામાં દ્વાદશ વિગેરેથી સમત સ’બધી પાંચે વિìા થાય છે એજ રીતે દ્વીન્દ્રિચાથી લઈને સિદ્ધ પર્યન્તના જીવામાં પણ દ્વાદશાદિ સમ ત વિષયેના પશ્ચિ लगे। थाय छे, तेभ समनपु હવે સૂત્રકાર આ જીવાના દ્વાદશાદિ સમર્જીત વિકલ્પોમાં અલ્પ મ यथानु' उथन ÷रे छे. 'एएसि ण भेते नेरईयाणं बारसंसंमज्जियाण' द्वाहंश सभत विगेरे वियोवाजा मा नारीयोनुं तथा 'संवेसिं" जघा
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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