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________________ अगवतासूत्र समर्जितत्वे कारणज्ञानाय पुनः गौतमः पृच्छति-'से केणटेणं इत्यादि, 'सेकेणद्वेणं जाव समज्जिया वि तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते द्वादशसमर्जिता. १, नो द्विादशसमर्जिताः२, द्वादशकेन च नो बादशकेन च समर्जिताः३, द्वादशकैः सम जिता ४, द्वादशकैश्व नो द्वादशकेन च समर्जिताः५ इति, अत्र यावत्पदेन भदन्त । (इत्यारभ्य द्वादशश्च नो द्वादशकेन च इत्यन्तस्य ग्रहणं भवतीति प्रश्नः । भगवा नाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे णं नेरहया' ये खलु नैरयिकाः वारसरणं पवेसणएणं पविसति' द्वादशकेन प्रवेशनकेन प्रविशन्ति, यतो नारका , एकसमये द्वादशसंख्ययाऽनु पविशन्ति ते णं नेरइया वारससमज्जिया' ते खलु है ५ यहां यावत्पद से द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ विकल्पों का संग्रह "हुआ है । अब गौतम द्वादश आदि अवस्था में समर्जित पने के कारण को जानने के अभिप्राय से ऐसा पूछते हैं-से केण?णं जाव लमज्जिया 'वि' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नारक जीव द्वादश समर्जित ? नो बादश समर्जितर, एक द्वादशक से और एक 'नो बादशक से समर्जित३ अनेक द्वादशों से समर्जित४ और अनेक द्वादशों से एवं एक नोद्वादशक ले समर्जित होते हैं ? यहां यावत्पद से . 'भदन्त यहां से लगाकर 'द्वादशकैश्च नो द्वादशकेन च यहां तक के “इन्हीं समस्त पदों का संग्रह हुआ है। इसके लक्कर में प्रभु कहते हैं'गोथमा ! जे णं नेरक्या' जो नैरयिक 'पारलएणं पवेसणएणं पविसंति' द्वादशक प्रवेशनक ले प्रवेश करते हैं -अर्थात् एक समय में ये १२ की પણ સમજીત હોય છે. પ, અહિં વાવસ્પદથી બીજા ત્રીજા અને ચોથા .. Aseपन। स थयो छ. હવે ગૌતમસ્વામી દ્વાદશ વિગેરે અવસ્થામાં સમતપણાનું કારણ ' वानी साथी असुने ये पूछे छे है-'से केणदेणं जाव समन्जिया वि०' ' હે ભગવન્ આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે-નારક છે દ્વાદશ સમ જીત ૧ ને દ્વાદશ સમજીતર, એક દ્વાદશથી અને એક ને દ્વાદશથી સમજીત અનેક દ્વાદશથી સમજીત૪, અને અનેક દ્વાદશથી અને એક ને દ્વાદશથી પણ સમજીત હોય છે. ૫, અહિયાં યાવત્પદથી “ભદન્ત' એ શબ્દથી asa 'द्वादशकैश्च नो द्वादशकेन च' मारा सुधीना मा तमाम पहानी सब थये। छे. या प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४९ छ है-'गोयमा! जे गं नेरइया' २ - नारीयो 'बारसएणं पवेसणएणं पविसति' बाइश प्रवेशनथी प्रवेश ४२ छ, मर्थात ४ समयमा मारनी सध्यामा पन्न याय छे. 'ते ण नेरइया बारस
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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