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________________ १३० भगवतीचे सन्निताः स्यादित आरभ्य शीर्षप्रहेलिकपर्यन्तं संख्यातेति व्यवहारो भवति, शीर्षप्रहेलिकायाः परतः असंख्यातेति व्यवहारो भवति, ततश्च संख्यातत्वेन असंख्यातत्वेन च यो वक्तुल शक्यते सोऽवक्तव्य इति कथ्यते, एतादृशः एकक एव भवति, अस्य संख्यातासंख्यातोभयशब्देनापि वक्तुमशक्यत्वात् । ततः अबक्तव्येन एककेन एकत्योत्पादेन ये सञ्चिता उत्पन्ना स्ते अवक्तव्यसंचिता इति । हे भदन्त । इमे नारकाः किं कतिसञ्चिता अतिसञ्चिता अवक्तव्यसञ्चिता वेति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि। 'गोयमा' हे गौतम ! 'नेरइया कतिसंचिया वि' नरयिकाः कतिसश्चिा अपि 'अकविसंचिया वि' अतिसंश्चिता अपि, 'अवत्तव्वगसंचिया वि' अवक्तव्यफसश्चिवा अपि । नरयिकाः त्रिविधा अपि भवन्ति, एकसमयेन तेषामेकत आरभ्य असंख्यातपर्यन्तानामुत्पादअसंख्यातरूप से अवक्तव्य होने के कारण अवक्तव्यसंचित होते हैंअर्थात् एक समय में एक ही उत्पन्न होते हैं क्योंकि एक जो होता? वह संख्यात, असंख्यात इन दोनों से वक्तव्य नहीं होता है दो से लेकर शीर्षप्रहेलिको तक की संख्या में ही संख्शत ऐसा व्यवहार होती है और शीर्षप्रहेलिका के आगे असंख्यात ऐसा व्यवहार होता है अतः एक ही, "अवक्तव्यकसंचित" पद से कथित हुआ है इस एक से एकस्वोपाद से-जो संचित हुए होते हैं वे अवक्तव्यसंचित हैं । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ।' हे गौतम ! 'नेरइया कइसंचिया वि, अंकइसचिया वि, अवत्तव्वगसंचिथा वि' नैरयिक कतिसंचित भी होते हैं, अकतिसंचित भी होते हैं और अवक्तरसंचित भी होते हैं। इस प्रकार से नैरयिक तीनों प्रकार के भी होते हैं । अर्थात-जो दूसरी गति से ४२राया छे. 'अवत्तव्वगसंचिया' अथवा सध्यात असभ्यात३५थी भवतव्य હેવાને કારણે અવક્તવ્ય સંચિત હોય છે? અર્થાત એક સમયમાં એક જ ઉત્પન્ન થાય છે? કેમકે જે એક હોય છે, તે સંખ્યાત, અસંખ્યાત એ બનેથી વક્તવ્ય હોતા નથી. બે થી લઈને શીષપ્રહેલિકા સુધીની સંખ્યામાં જ સાત એ વ્યવહાર થાય છે. અને શીર્ષપ્રહેલિકાની આગળ અસં. यात मेव। ०५१।२ थाय छे था ४४ 'अवक्तव्यकसंचित' पथा ४३पाये छ. माथी 'एकत्वोत्पाद'थी २ सथित थये डाय छ, त भ. gi०य सथित उपाय छे. भा प्रशन उत्तरमा प्रभु छ गोयमा !! 3 गौतम! 'नेरइया कइसंचिया वि अकइसंचिया वि अवत्तत्वगसंचिया वि' નારકીય કતિ સંચિત પણ હોય છે, અકતિ સંચિત પણ હોય છે, અને અવક્તવ્ય સંચિત પણ હોય છે. આ રીતે નારકીય જે ત્રણ પ્રકારના હોય
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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