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________________ ५०० भगवतीसूत्र 1. अथाग्रे . प्रस्तुतसूत्रमाह-'धम्मत्यिकाए णं मंते' इत्यादि, 'धम्मत्यिकारणे भंते' धर्मास्तिकायः खलु भदन्त ! 'के महालए पन्नत्ते' कियन्महालयः प्रज्ञप्त:कीदृशं महत्त्वं धर्मास्तिकायस्य कथितम् क्रियानविस्तीर्णः ? इत्यर्थः इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'गोयमा' इत्यादि गोयमा' ! हे गौतम ! 'लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोका लोकमाना, लोकमपाणा, लोका-लोकरूपः, लोकमात्र:-यावान् लोकस्तावन्माना, लोकममाण:-लोकरदेव प्रमाणं यस्य स तथा । 'लोयफुडे लोयं चेव ओगाहित्ताणं चिट' लोकस्पृष्टः सन् लोकं स्पृशन् स्थितः लोकमेवाकहते जाना चाहिये यहां यावत्पद से यह कहा गया है कि 'अलो. यागासे णं भंते !' इत्यादि अलोकाकाश सूत्र संपूर्णरूप से यहां पढ लेना चाहिये इसकी व्याख्या भी यहां पर देख लेनी चाहिये तात्पर्य कहने का यही है कि यहां पर लोकाकाश के जीवादिरूप होने का प्रश्न है सो उसके समाधान में ऐसा समझना चाहिये कि लोकाकाश यह जीव. रूप भी हैं जीवदेशरूप भी है और जीवप्रदेशरूप भी है इत्यादि समस्त कथन वहां द्वितीय शतक के १०३ उद्देशक में कहा गया है अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'धम्मस्थिकारणं भंते! के महालए पन्नत्ते' हे भदन्त ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? अर्थात् धर्मास्तिकाय कितना विस्तीर्ण है ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा है-'गोधमा लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे हे गौतम धर्मास्तिकाय लोकल्प है जितना बडा लोक है, उतना धडा है, लोक का जितना प्रमाण है उतना ही प्रमाण અલકાકાશ સૂત્ર પૂરેપૂરૂ અહિયાં કહેવું જોઈએ. અને તેની વ્યાખ્યા પણું ત્યાં જઈ સમજી લેવી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–અહિં કાકાશમાં જીવ વિગેરે હેવાને પ્રશ્ન છે. તેથી તેના સમાધાનમાં એમ સમજવું જોઈએ કે-લે કાકાશ જીવ રૂપ પણ છે, જીવ દેશ રૂપ પણ છે. અને જીવ પ્રદેશરૂપ પણ છે. વિગેરે સંપૂર્ણ કથન ત્યાં બીજા શતકના ૧૦ દસમાં ઉદ્દેશામાં કહ્યું छे. प्रमाणे मडिया सम. वे गौतम भी शथी प्रभुन पूछे छे ,-'धम्मत्थिकाए भते! के महाउए पण्णत्ते' 3 भगवन् पारिताय तु विशण ड छ ? ते उत्तरमा प्रभु छ -'गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयम्पमाणे' गौतम ! ધમસ્તિકાય લેક રૂપ છે. એટલે વિશાળ લેક છે, તેટલું વિશાળ ધર્માસ્તિકાય છે. અર્થાત જેટલું પ્રમાણ લેકનું છે. તેટલું જ પ્રમાણે ધર્માસ્તિકાચનું छ. 'लोयफुडे लोय चेव ओगाहित्ता णं चिटुइ' खाने २५० ४शन सा
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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