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________________ ४९४ .... _ भगवतीस्त्रे उद्धृत्य-मृत्वा सर्वार्थसिद्धपर्यन्तं गच्छन्तीत्यर्थः । 'सेसं जहा वेइंदियाण' शेपं यथा द्वीन्द्रियाणाम् एतद्भिन्न सर्व द्वीन्द्रियादेव ज्ञातव्यमिति । 'एएसिगं भंते !' एतेषां खलु भदन्त ! 'बेइंदियाणं जाव पंचिदियाण य' द्वीन्द्रियाणां यावत्पञ्चेन्द्रियाणां च जीवानाम् यावत्पदेन त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां ग्रहणं भवति । 'कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहिया वा' कतरे कतरेभ्यो यावद्विशेषाधिका वा याव. त्पदेन अल्पचिका महद्धिका वेत्यनयोः संग्रहः इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वत्थो वा पंबिंदिया' सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः 'चउरिदिया विसेसाहिया' चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः 'तेइंदिया विसेसाहिया' त्रीन्द्रिया विशे जीव मरकर सर्वत्र उत्पन्न होते हैं 'जाव' तात्पर्य इस कथन का केवल यही है कि पञ्चेन्द्रिय जीव भरकर सर्वार्थसिद्ध तक उत्पन होते हैं । 'सेसं जहा वेईदियाणं' इस कथन से अतिरिक्त और सब कथल द्वीन्द्रियजीवों के कथन जैसा ही जानना चाहिये 'एएसिणं भंते ! इंदियाणं जाव पंचिंदियाण य कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहिया' अब गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इन द्वीन्द्रियजीवों से कौन किससेयावत् विशेषाधिक हैं ? यहां प्रथम यावत्पद से तेइन्द्रिय और चौइन्द्रियजीवों का ग्रहण हुआ है और द्वितीय यावत्सद से अल्पर्द्धिक और महर्द्धिक इन दो का ग्रहण हुआ है गौतम के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्वत्थो घा पचिंदियो' सष से कम पञ्चेन्द्रिय जीव हैं और पश्चेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा 'चरिदिया विसेसाहिया' चौइन्द्रिय जीव विशे. दृणा सव्वत्थ गच्छत्ति' मा पन्द्रिय ७१ भरी मधे पनि थाय छे. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-પંચેન્દ્રિય જીવ મરીને સર્વાર્થ સિદ્ધ ઉત્પન્ન थाय छे. 'सेसं जहा बेइंदियाण' मा ४थन शिवाय माडीनु मधु ४थन मे धन्द्रिय वोना ४थन प्रभाये छे. तभ समा. एएसिणं भंते ! बेइंदि याणं जाव पचिंदियाण य कयरे कयरहितो जाब विसेसाहिया' सरन् । બે ઈન્દ્રિય ખામાં કેણુ કેનાથી યાવત્ વિશેષાધિક છે? અહિયાં પહેલા યાવત્ પદથી ત્રણ ઇન્દ્રિયવાળા અને ચાર ઈદ્રિયવાળા જ ગ્રહણ કરાયા છે અને બીજા યાવત્ પદથી અલ્પર્ધિક અને મહદ્ધિકે એ બે ગ્રહણ કરાયા છે. ગૌતમ स्वाभाना मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ है-'गोयमा! गौतम! 'सव्वत्थो वा पंचिदिया' मधाम मेछपयन्द्रिय ७१ छ भने ५'येन्द्रिय वानी
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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