SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीस्त्रे इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि' पृथिवीकायिकजीवाः साकारोपयुक्ता अपि अनाकारोपयुक्ता अपि साकारोज्ञानोपयोगः अनाकारो दर्शनोपयोगोऽपीति ६ । सप्तममाहारद्वारमाह-'तेणं भंते ! जीवा' ते पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! जीवाः 'किमाहारमाहारेति' किमाहारमाहरन्ति कीदृशमाहारम्-आहारपुद्गलरूपम् आहरन्ति-गृह्णन्ति ? इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'दबओ णं अणंतपएसियाई दवाई' द्रव्यतः अनन्तमदेशिकानि द्रव्याणि आहारपुद्गलरूपाणि आहरन्तीत्यर्थः 'एवं जहा पनवणाए पढमे अ हारुद्देसए' एवं यथा प्रज्ञापनायाः अष्टाविंश्चतितमपदस्य प्रथमे आहारोद्देशके नैरयिकपकरणे आहारविपये कथितं तथैव इहापि ज्ञातव्ययोगवाले होते हैं या अनाकारोपयोगवाले होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम! पृथिवीकायिक जीव साकारोपयोगवाले भी होते हैं और अनाकारोपयोगवाले भी होते हैं ज्ञानोपयोग का नाम साकारोपयोग और दर्शनोपयोग को नाम अनाकारोपयोग है दोनों उपयोग इनमें इसलिये होते हैं कि जीव का स्वभाव ही उपयोगरूप है। आहारद्वार-'ते णं भंते ! जीवा' हे भदन्त ! ये जीव कैसे आहारपुद्गलों का आहार करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं--- 'गोयमा०' हे गौतम ! वे पृथिवीकायिक जीव 'व्यओ०' द्रव्यकी अपेक्षा ऐसे द्रव्यों का आहार करते हैं कि जो अनन्तप्रदेशात्म होते हैं । एवं जहा.' -प्रज्ञापना के २८ वे पद के प्रथम आहारोद्देशक में नैरयिक प्रकरण में आहार के विषय में जैसा कहा गया है वैसा ही कथन यहां छ ४-गोयमा !' 8 गौतम । पृथिवीयि वे सारोपयोगमा હોય છે, અને નિરાકારપગવાળા પણ હોય છે. જ્ઞાન વેગનું નામ સાકારપગ છે. દર્શનાગનું નામ નિરાકારે પગ છે. આ બંને પેગો તેઓમાં એ કારણથી હોય છે કે-જીવને સ્વભાવ જ ઉપયોગ રૂપ હોય છે. ७ मा २६२-ते णं मते ! जीवा०' है मगवन् माहार पुदीना भाला ४२ छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु ४ छ -'गोयमा०' गीतमा थियि ७३ ‘दव्यओ०' द्र०यनी अपेक्षाथी मेवा द्रव्यान। माहार रे छ है मन-1 प्रशाम जाय छे. 'एवं जहा०' प्रज्ञापन સૂત્રના ૨૮ અઠ્યાવીસમા પદના પહેલા આહાર ઉદ્દેશામાં નરર્થિક પ્રકરણમાં આહારના વિષયમાં જેવી રીતે કથન કરવામાં આવ્યું છે, તેવું જ કથન
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy