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________________ १४२ भगवतीस्त्र द्वीपं यावत् इन्त, मभुः। एवं यावत् रुचकवरं द्वीप यावत् हन्त, प्रभुः। ततः खल पर व्यतिव्रजेत् नैखलु अनुपर्यटेत् ।।मु०६।। ___टीका–'देवे णं भंते !' देवः खल्ल भदन्त ! 'महिडिए जाव महासोक्खे। महद्धिको यावन्महासौख्यः, अत्र यावत्पदेन महाद्युतिको महायशाः महाबलः इत्यादि विशेषणानां संग्रहः 'पभू प्रभुः-समर्थः 'लवणसमुदं अणुपरियहित्ता' लवणसमुद्रम् अनुपर्यटय-लवणसमुद्रस्य चतुर्दिक्षु भ्रमणं कृत्वा इत्यर्थः 'हव्यमागच्छि. त्तए' हव्यमागन्तुम्, हे भदन्त ! महावलादिविशेषणोपेतो देवो लवणसमुद्रस्य चतुर्दिक्षु भ्रान्त्या शीघ्रं स्वस्थानमागन्तुं शक्तः किमिति प्रश्ना, भगवानाह-'हंता' इत्यादि । 'हंता पभू' हन्त, प्रभुः हे गौतम ! लवणसमुद्रस्य चतुर्दिक्षु भ्रमणे देवस्य सामर्थमस्ति विशिष्टतरपुण्यप्रभावादवाप्तसामर्थ्यशालिवादिन्युत्तरमितिभावः । 'देवे र्ण भंते ! महिडिए जाय महेसोश्खे' इत्यादि। टीकार्थ--इस मन्त्र द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि'देवे णं भंते ! महिडिए०' हे भदन्त ! जो देव विमान आदिरूप महाऋद्धिवाला होता है । यावत् महासुखवाला होता है वह क्या लवण समुद्र की चारों ओर चकर लगाकर बहुत ही जल्दी अपने स्थान पर आ सकता है ? यहां यावत् शब्द से 'महाद्युतिका, महायशाः महाबल' इन विशेषणों का संग्रह हुआ है। पूछने का तात्पर्य ऐसा है कि महायलादि विशेषणोंवाला देव लवणसमुद्र की चारों दिशाओं में भ्रमण करके शीघ्र ही क्या अपनी जगह पर आ सकता है ? इसके उत्ता में प्रभु ने कहा-'हना पल्लू' हा गौतम ! आ सकता है क्योंकि लघणसमुद्र की चारों दिशाओं में भ्रमण करने में देव की शक्ति है। "देवे णं भंते ! महिढिए जाव महासोक्खे" त्या 12--21 सूत्री गौतम स्वामी प्रभुने यनु ५ युछ है-"देवेणं वे! महि ढिए" ७ सन् २ व विमान विरेथी महाशद्धिवाणे डाय છે. યાવત મહાસુખવાળા હોય છે, તે લવણ સમુદ્રની ચારે બાજુ ચકકર લગાવીને અર્થાત ચારે બાજુ ફરીને ઘણીજ શીઘનાથી તે પોતાના સ્થાને આવી શકે છે? અહિયાં યાવત્ શબ્દથી મહાદ્યુતિવાળ, મહાબળવાળે આ પદોનો સંગ્રહ થયે છે. આ પ્રશ્ન પૂછવાને હેતુ એ છે કે મહાબલ વિગેરે વિશેષણવાળો દેવ લવણ સમુદ્રની ચારે બાજુ ફરીને તુરત જ તે પિતાના સ્થાને આવી શકે છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४९ छे है--"हंता पभू" । गौतम! तवी शत સમુદ્રને ફરીને દેવ આવી શકે છે. કારણ કે લવણ સમુદ્રની ચારે બાજુ ફરવાની દેવની શક્તિ છે. કેમ કે તે શક્તિ વિશેષ પ્રકારના પુણ્યના પ્રભાવથી-બળથી
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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