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________________ १३२ भगवतीस्त्र वन्दित्वा नमस्यित्वा एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत् 'पभू णं भंते !' प्रभुः समर्थ खलु भदन्त ! 'मद्दुए समणोबासए' गद्रुकः श्रमणोपासकः 'देवाणुप्पियाणं अंति जाव पवइत्तए' देवानुप्रियाणामन्तिके समीपे यावत् मनजितुम्' भगवान गौतमो भगवन्तं नमस्कृत्य उक्तान् हे देवानुपिय ! किमयं महकः श्रमणोपासकः भव समीपे यावत्पदेन मुण्डो भूत्वा आगारात् अनगारितां प्रत्राजितुं समर्थः किमितिभावः। भगवानाह-'जो इणडे' इत्यादि । 'णो इणहे समठे नायमर्थः समर्थः 'एवं जहेव संखे तहेव अरुणाभे जाव अंतं काहिह' एवं यथैव शंखस्तथैव अरुणाभे यावद् अन्तं करिष्यतीति । साक्षादयं मत्समीपे दीक्षां न अहिप्यति किन्तु यथा शंखो नाम श्रावकः द्वादशशतके प्रथमोद्देशके उक्ता तथैव अयापि अरुणाभनामकविमाने उत्पध ततश्च्यु वा महाविदेहे उत्पथ समाराषितमोक्षमार्गः केवलज्ञानमवाप्य सेत्स्यति भोत्स्यते मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति ॥० ३।। उन्होंने प्रभु से ऐसा पूछ। 'पभूणं भंते ! महुए समणोवासए देवानुप्पियाणं अंतिथं जाव पचहत्तए' हे भदन्त । श्रप्रणोपासक मद्रुक क्या आप देवानुप्रिय के पास धर्मशो श्रवण कर झुंडित होकर अगारावस्था का परित्याग करके अनगोरावस्था धारण करने के लिये समर्थ है ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा-'णो इण? समहे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 'एवं जहेव संखे तहेव अरुणाभे जाव अंतं काहिह' अर्थात यह साक्षात् रूप से मेरे पास दीक्षाग्रहण नहीं करेगा, किन्तु द्वादश. शतक के प्रथम उद्देशक में कथित शंख श्रावक के जैला यह अरुणाम नामक विमान में उत्पन्न होकर और फिर वहां से चबाकर महाविदेह में उत्पन्न होगा, और वहां मोक्षमार्ग की आराधना करेगा उससे यह केवल. ज्ञान को प्राप्तकर सिद्धगति पावेगा, युद्ध हो जावेगा, मुक्त हो जावेगा, परिनिर्वाण हो जावेगा एवं सर्वदुःखों का विनाश कर देगा |सू० ३॥ awी माय सापानन मा प्रमाणे पूछ्यु "पभू णं भंते ! मदुए सणणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाव पवइत्तए" हसन अभए। પાસક મક્ક આપ દેવાનુપ્રિય પાસે મુ ડિત થઈને અગાર અવસ્થાને ત્યાગ કરીને અનગાર અવસ્થા ધારણ કરી શકશે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુએ કહ્યું 2--"णो इणटूठे समठे" है गौतम भागय सरासर नथा. 'एवं जहेव संखे तहेव अरूणाभे जाव अंतं काहिह" अर्थात ते साक्षात् ३५थी भारी पासे દીક્ષા સ્વીકારશે નહીં પરંતુ બારમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં વર્ણવેલ શંખ શ્રાવકની જેમ આ મક શ્રાવક અરૂણાભ નામના વિમાનમાં ઉત્પન્ન થઈને તે પછી ત્યાંથી ચવીને મહાવિદેહમાં ઉત્પન્ન થશે. અને ત્યાં મોક્ષમાર્ગની આરાધના કરીને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરશે અને તે પછી તે સિદ્ધ ગતિ भगवते. अर्थात् सिद्ध थशे. मुद्ध थशे. भुत थशे. अने परिनिर्वात थशे, मन सामाना मत २२.॥ सू० ॥
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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