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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०७ सू०३ मद्रुकश्रमणोपासकचरितनिरूपणम् १२९ ते सति अहंदाधाज्ञायाः तदीयधर्मस्य च दिराधनं भवति तस्मात् कारणात् यत् खम न्ययूथिकान् प्रति पश्चारितकायविषयकाज्ञानस्य कथनं कृतं तव सम्यगेवकृतमित्यर्थः 'साहू णं तुमं मद्रुया जाय एवं वयासी' साधु सम्यक खलु त्वं मद्रुक ! , यावत् एवम् पूर्वोक्तप्रकारेग अवादोः, अत्र यावत् पदेन 'ते अन्नउस्थिए एवं' इत्यस्य ग्रहणं कर्तव्यम् । तए णं मद्दुए समणोवासए' ततः खलु-भगवतोऽनुमो. दनानन्तरं मद्रुका श्रमगोपासकः 'समणेणं भगवया महावीरेण एवं वुत्ते समाणे' श्रमणेन भगवता महावीरेण एमुक्तः सन् हतुडे' हृष्टतुष्टः 'समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसई श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नयस्यति' वन्दित्वा नमस्यित्वा 'णच्चासन्ने जाव एज्जुवासइ' नात्यासन्ने यावत् पर्युपास्ते, नातिदूरे नाति है । उसकी अनेकजनों के बीच में प्ररूपणा करने पर अहंदादिकों की और उनके धर्म की विराधना होती है। इस कारण जो तुमने अन्ययू. थिकों के प्रति पंच अरिताप विषयक अज्ञान का कथन किया वह अच्छा ही किया है। अतः 'लाहू णं तुम मद्दुमा! जाच एवं बयासी' हे मद्गुक! तुम बहुत अच्छे हो जो तुमने पूर्वोक्त रूप से कहा यहां यावत पद से 'ते अन्नउत्थिए एवं इसका ग्रहण हुआ है। 'लए णं मदुए समणोवासए' इस प्रकार से भगवान द्वारा की गई अनुमोदना के बाद उस श्रमणोपालक मद्रक ने जब 'लनणेण भगवण महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे श्रमण भगवान महावीर के द्वारा वह इस प्रकार से कहा गया तब 'हहतुढे समर्ण भगवं महावीरं बदह नमस' हृष्टतुष्ट हृद्यवाले होकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की नमस्कार किया 'वंदित्ता नमंप्सित्ता जच्चाप्तन्ने जाच पज्जुधालइ' बन्दना नमस्कार कर फिर वह દાયમાં પ્રરૂપણ કરવાથી અહંતાદિકની અને તેઓએ પ્રણીત ધર્મની વિરાધના થાય છે, તે કારણે તમે એ અચૂથિને પાંચ અસ્તિકાયના સંબંધમાં તેઓના मज्ञानन ४५न यु ही ४यु छ. "साहू ण तुमं मदुया! जाव एव वयासी" भ! तमासे २ पूड़ित ३२ पन्यु छ घार ४ उत्तम ४यु छे. मालियां या५४थी ' अन्नउत्थिए एवं वयासी" मा वाय अहए ४शयु छे. 'तएणं मद्दुए सनणोवासए' साने मारी भट्ठ श्रीना ४थन समर्थित यु त पछी ते श्रमास भट्ठयारे "समणेणं भगवया एवं वुत्ते समाणे" समकान महावीर स्वाभान या प्रमाणे यु त्यारे "हटतुठे समणं भागव' महावीर चंदइ नमसइ हटतुष्ट (यवाणी ने श्रHAIन महावीरने ना ४३१ नम२४१२ र्या वदित्ता नमसित्ता पच्चासन्ने भ० १७
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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