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________________ प्रमेयवन्द्रिका टीका श०१८ उ० १ सू०२ संयतासंयतत्वे कषायद्वारम् ६०३ य नो चरिमो अचरिमो' अकषायी जीवपदे सिद्धपदेच नो चरमोऽचरमः अकपायी - उपशान्तमोहादिः स च जीनो मनुष्यः सिद्धच स्यात्, तत्र जीवः सिद्धश्राचरम एव यतः प्रपतितमपि जीवस्य अकषायित्वं पुनरवश्यंभावि सिद्धत्वस्य तु Career कदाचिदपि न प्रपतति । 'मणुस्तपदे सिय चरिमो सिय अचरिमो' मनुष्यपदे स्याच्चरमः स्यादचरमः, अकषायी मनुष्यपदे चरमोऽचरमोऽपि, मनुष्यस्तु अकषायिश्वयुक्तं मनुष्यत्वं यः पुन नै प्राप्स्यति स चरमः, यस्तु अकषायित्वोपेतं मनुष्यत्वं प्राप्स्यति सोऽचरम इति |७| ज्ञानद्वारे – 'पाणी जहा सम्मदिट्ठी सम्वत्थ' ज्ञानी यथा सम्यग्दृष्टिः सर्वत्र ज्ञानी सर्वत्र जीवादिपदेषु अचरमः सम्यग्दृष्टिवत्, अयमाशय: - जीवः सिद्धश्व अचरमः, जीवो हि - विद्यमानज्ञानस्य कारणवशात् प्रतिपातेऽपि पुन स्वस्थ करेगा वह अचरम है। 'अकसाई जीवपदे सिद्धेय नो चरिमो अवरिमो' अकषायी जीवपद में और सिद्धपद में चरम नहीं है अचरम है, उपशान्त मोहादिवाला जीव अकषायी होता है। ऐसा वह जीव मनुष्य और सिद्ध होता है और यह अचरम ही होता है । कारण कि जीव का पतित भी अकषायित्व भाव पुनः अवश्यंभावी होता है । 'मस्तपदे सिय 'चरिमो लिय अरिमो' तथा मनुष्य पदमें अकषायित्वयुक्त मनुष्यत्व को पुनः प्राप्त नहीं करेगा, वह चरम है, और जो अकषायित्वयुक्त मनुsura को जो पुनः प्राप्त करेगा वह अचरम है। ज्ञानद्वार में - ' णाणी जहा सम्मट्ठी सम्वत्थ' ज्ञानी सर्वत्र जीवादि पदों में सम्यग्दृष्टि के जैसा अचरम है। इसका आशय ऐसा है - ज्ञानद्वार में जीव और सिद्ध अचरम होते हैं । कारणवश जीव को विद्यमान ज्ञान का प्रतिपात हो जाने पर जीवपदे सिद्धे य नो चरिमो अनरिमो' भाषायी वयहमां ने सिद्ध પટ્ટમાં ચરમ હાતા નથી. પશુ અચરમ છે. ઉષશાંત માહાદિવાળા જીવ અકષાયી હાય છે, એવા તે જીવ મનુષ્ય અને સિદ્ધાય છે. અને તે અચમજ હાય છે. કારણ જીવનુ' પતિત થયેલ અકષાયીપણુ ફરીથી અવશ્ય भावी होय . ' मणुस्खपदे सिय चरिमो सिय अचरिमो' तथा मनुष्य यहभां અકષાયીવાળા મનુષ્યપણાને ફરી પ્રાપ્ત ન કરવાવાળા ચરમ છે. અને જે અક ષાયીવાળા મનુષ્યપણાને ફરીથી પ્રાપ્ત કરનાર ાય તે ચરમ છે. ज्ञानद्वार -- "णणी जहा सम्मदिट्ठी सव्वत्थ' ज्ञानी मधे वाहिपतेाभां સભ્યદૃષ્ટિ પ્રમાણે અચરમ છે. આ કથનના આશય એવા છે કે જ્ઞાનદ્વારમાં જીન્ન અને સિદ્ધ અયરમ હાય છે. કારણવશ જીવને વિદ્યમાન જ્ઞાનના અભાવ
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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