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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ० १ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे लेश्याद्वारम् ५६५ प्रथमत्वाप्रथमत्वयोः प्रश्नं कृत्वा तस्य नारकादेस्तादृश लेश्यभावेन अप्रथमत्वं विवेचनीयमितिभावः । ' अलेस्से णं जीव भणुस्ससिद्धे जहा नो सन्नि नो असनी' अलेश्यः खलु जीवमनुष्य सिद्धो यथा नो संज्ञि नो असंज्ञी, अलेइयो- लेश्यारहितो जीवो मनुष्यः सिद्धश्व अलेश्प्रभावेन प्रथम एव भवति नत अप्रथमः अलेश्य 'भावस्य प्रथमत एव प्राप्तत्वात् इतः पूर्वं कदाप्यप्राप्तत्वादिति । इति पश्चमं लेश्याद्वारम् ॥ अथ षष्ठं दृष्टिद्वारमाह-' सम्मदिट्ठिए णं भंते !" इत्यादि । 'सम्मदिट्ठिए मंते !' सम्यग्दृष्टिकः खलु भदन्त ! 'जीवे सम्मदिट्टिभावेणं किं पढमे अपढमे' जीवः है, उस लेश्या को लेकर ही वह जीव सलेश्य है सो उसमें प्रथमत्व का प्रश्न करके उस नारकादिक जीव को तादृशलक्ष्य भाव की अपेक्षा से अप्रथमत्व का विवेचन कर लेना चाहिये । 'अलेस्से णं जीवमणुस्स सिद्धे जहा नो सन्नि नो असन्नी' लेश्यारहित जीव, मनुष्य, और सिद्ध हो सकते हैं- सो ये लेश्यारहित जीव मनुष्य और सिद्ध अलेश्यभाव की अपेक्षा से प्रथम ही हैं अप्रथम नहीं । क्योंकि अलेश्य भाव जीव को एक बार होता है अतः प्रथम बार ही प्राप्त होने के कारण और इससे पूर्व में कदापि प्राप्त नहीं होने के कारण अलेइयजीव अले भाव की अपेक्षा प्रथम ही हैं । ५ लेइया द्वार समाप्त | छठवें इस दृष्टिद्वार में गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है - 'सम्म दिट्टिए णं भंते!' इत्यादि हे भदन्त ! जो सम्यग्दृष्टिक जीव है લઈને જ તે જીવ લેશ્યાવાળા કહેવાય છે. તેમાં પ્રથમ અને અપ્રથમપણાના પ્રશ્ન કરીને તે નારકાદિ જીવને તેવા પ્રકારની વૈશ્યાભાવની અપેક્ષાએ अप्रथभयथातु विवेशन री बेवु' ' अलेस्से णं जीवे मणुहससिद्धे जहा नो सन्नि नो असन्नी" बेश्यारहित व मनुष्य मने सिद्ध मसेश्या लावनी અપેક્ષાથી પ્રથમ જ છે અપ્રથમ નથી.કેમ કે અલૈશ્યભાવ જીવને એક જ વખત હાય છે. જેથી પ્રથમવાર પ્રાપ્ત થવાનુ કારણ અને તેનાથી પહેલાં કોઈ વખત પ્રાપ્ત નહીં થવાનુ કારણ અલૈશ્ય જીવ અલૈશ્ય ભાવની અપેક્ષાએ પ્રથમ જ છે. ॥ પાંચમું વૈશ્યાદ્વાર સમાપ્ત U छठ्ठ दृष्टिद्वार- છઠ્ઠા આ દૃષ્ટિઢારમાં ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછ્યું છે કે"“सम्मदिट्ठिए णं भते !" त्याहि है लगवन् सम्यगूदृष्टि ने व छे, ते
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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