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________________ ४८८ -- .. भगवतीले टीका- 'पुढरिकाइए णं भंते !' पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्या समोहए' समवहतः मार. णान्तिकसमुद्घातं कृत्वेत्यर्थः 'समोहगित्ता' समत्रहत्य-समुद्घातं कृत्वा जो' यः कोऽपि 'सोहम्मे कप्पे' सौधर्मे कल्पे 'पुढविक्काइयत्ताए' पृथिवीकायिकतया पृथिवीकायिकजीवस्वरूपेणेत्यर्थः 'उववज्जित्तए' उत्पत्तुं 'भविए' भन्यः योग्यः, हे भदन्त ! यः पृथिवीकायिको जीवः रत्नप्रभायां पृथिव्यां मारणान्तिक समुद्घातं कृत्वा सौधर्मे कल्पे उत्पत्तियोग्यः ‘से णं भंते !' स पृथिवीकायिको जीवर खलु भदन्त ! 'किं पुन्धि उपवज्जिता' किं पूर्वमुत्पद्य 'पच्छा संपाउणेज्जा' पश्चात् संपाप्नुयात् आहारपुद्गलग्रहणं कुर्गदित्यर्थः अथवा 'पुब्धि वा संपाउणित्ता' आदि सूत्र 'पुढविक्काइए णं भंते' इत्यादि सूत्र है-- ..., ' 'पुढविक्काइएणं भंते इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' इत्यादि टीकार्थ-'पुढविक्काइयण भते।' कोई पृधिवीकायिक जीव इमीसे रयणपभाए पुढवीए' इस रत्नप्रभापृथिवी में 'समोहए' मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होवें, 'समोहणित्ता' और वह मारणन्तिक समु. दघात करके 'जो भविए सोहम्मे कप्पे' जो सौधर्मकल्प है उसमें 'पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए भविए' पृथिवीकायिकरूप से उत्पन्न होने के योग्य हो-अर्थात् कोई पृथिवीकायिक जीव हे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी में ऐसा है की जो वहाँ मारणान्तिक समुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथिवीकायिकरूप से ही उत्पन्न होने के योग्य है । 'से णं भंते ! कि पुवित्र उववज्जित्ता' तो ऐसा वह पृथिवीकायिक जीव हे भदन्त । क्या पहिले वहीं उत्पन्न होकर 'एच्छा संपाउणेज्जा' पश्चात् आहार "पुढविकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए" त्या टी --पुढविक्क'इए ण भंते !" पृथ्वी48 "इमीसे रयणप्पभाए पुढीए" मा रत्नमा पृथ्वीमा 'समोहए" - भारत समुद्धात शत “जो सोहम्मे कप्पे" २ सौधर्म ४८५ छ, तभा "पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए भविए" पृथ्वी थि: ३५थी उत्पन्न यवान योग्य हाय અર્થાત્ હે ભગવન કેઈ પૃવિકાયિક જીવ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં એવા છે કે જે ત્યાં મારણતિક સમુદુવાત કરીને સૌધર્મકલ્પમાં પૃથ્વીકાયિક રૂપથી જ - Gत्पन्न थकान योग्य छ “से णं भंते कि पुनि उववन्जित्ता" तो मेवात पृथ्वीमयि ७५ समन् शु. पडेल त्या उत्पन्न २ "पच्छा संपाउणेज्जा" पछीथी मा२ पुराने अड ४२ छ १ अथवा तो 'पुट्वि
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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