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________________ ४७६ भगवतीने "किंवा तदुभयकडा वेपणा' तदुभयकृता वेदनेति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्तकडा वेयगा' आत्मकृता वेदना एवं जाव वेमाणियाण' एवं यावद् वैमानिकानाम् । 'जीया णं भंते ।' जीवाः खलु मदन्त ! 'कि अत्तकडं वेयणं वेऍति किम् आत्मकृताम् वेदनां वेदयन्ति अनुभवन्ति 'परकडं वेयणं वेएंति' परकृतां वेदनां वेदयन्ति, 'तदुभयकंड वेयणं वेऍति' तदुभयकृतां वेदनां वेदयन्ति ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'जीवा अत्तकडं वेयणं वेएंति' जीवा आत्मकृती वेदनां वेदयन्ति 'नो परकडं वेयणं वेएंति' नो परकृतां वेदनां वेदयन्ति 'नो तदुभयकडं वेयणं वेएंति' कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्तकडा वेयणा नो परकड़ा वेयणा नो तदुभयकडा वेयणा' 'जीवों को आत्मकृत वेदना होती है। परन्तु परकृत और उभयकृत वेदना नहीं होती है । 'एवं जाच वेमाणियाण' इसी प्रकार का कथन नारक से लेकर वैमानिक तक के जीवों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि-'जीवाणंमते! कि अत्तकडं वेयर्ण वेएंति' हे भदन्त ! जीव क्या आत्मकृत वेदना का अनुभव करते हैं या-'परकडं वेचणं वेएंति तदुभयकडं वेयंग एंति' अथवा परकृत वेदना का अनुभव करते हैं ? या तदुभयकृत वेदना का अनुभव करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! इत्यादि हे गौतम ! जीव आत्मकृत वेदना का अनुभव करते हैं, परकृत वेदना का या तदुभयकृत . वेदना का अनुभव नहीं करते हैं । 'एवं जाव माणियाण' इसी । प्रकार का कथन धावत् वैमानिक तक के जीवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । अर्थात् नारक से लेकर वैमानिक तक के जीव सब 'णों परकडा वेयणा णो तदुभयकता वेयणा' ५२कृत मनतमय वहना खाती नथी. "एवं जाव वेमाणियाणं" मा प्रमाणेनुयन नारथी सन वैमानित સુધીના જીના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. ફરીથી ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને मे पूछे छे :-"जीवा अत्तकडं वेयणं वेएंति" समपन् । शु આત્મકૃત વેદનાને અનુભવ કરે છે? અથવા પરકૃત વેદનાને અનુભવ કરે છે? અથવા તદુભયકૃત વેદનાને અનુભવ કરે છે ? माना तरमा प्रभु ४३ छे -"गोयमा" याह, गौतम! ७१ આત્મકૃત વેદનાને અનુભવ કરે છે, પરકૃત અથવા તદુલયકૃત વેદનાને मनुस ४२ता नथी. "एवं जाव वेमाणियाणं" 21 प्रभाथेनु थन यावत् વૈમાનિક સુધીના જીના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. અર્થાત્ નારથી
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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