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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १७ उ० ३ ० ३ संवेगादिधर्मस्वरूपनिरूपणम् ४४९ पाणां परिकृत्सनम् निन्दनमेव निन्दनता, 'गरहणया' गर्हणता-गहणम् गुरुसमक्षमास्मदोषोद्धावनम् , गर्हणमेव गर्हणता 'खमावणया' क्षमापनता-परस्यासन्तोषवतः क्षमासंपादनम् 'सुयसहायया' श्रुतसहायता श्रुतमेव सहायो यस्यासौ श्रुतसहायः, तद्भावस्तत्ता, यद्वा श्रुवस्य शास्त्रस्य सहायता-अभ्यासः श्रुतसहायता श्रुताभ्यास इत्यर्थः 'विउममणया' व्युपशमनता या परस्मिन् क्रोधात् निवर्तयति सा क्रोधत्यागरूपेत्यर्थः 'भाषे अप्पडिबद्धया' भावेऽप्रतिबद्धता भावे हास्यादौ अमतिबद्धता-अनुबन्धत्यागः हास्यादिविषयकाग्रहपरिवर्जनमित्यर्थः 'विणिवरणया' विनिवर्तनता असंयमस्थाने यो विनिवर्तनम् विनिवर्तनमेव विनिवर्तनता 'विवित्तसयणासणसेवणया' विविक्तशयनासनसेवनता विविक्तशयनासना. नाम्-एकान्तवसत्यासनानां या सेवनया-आसेवनमिति विविक्तशयनासनसेवना सैव विविक्तशयनासनसेवनता स्त्रीपशुपण्डकरहितैकान्तवसत्यादिसेवनमिति. भावः । 'सोइंदियसवरे' श्रोत्रेन्द्रियसंवरः श्रीनेन्द्रियस्य शब्दविषये उपरमणम् आप ही निंदा करना, 'गरहणया' गुरुसमक्ष अपने दोषों को प्रकट करना, खमावणया' क्षमापनता-असंतोष युक्त हुए पर को क्षमा देना, 'सुहसहायया' श्रुत को ही अपना सहायक मानना, अथवा श्रुत का अभ्यास करना, "विउसमणया" 'दूसरे के ऊपर क्रोध करने से अपने आप को हटा लेना-अर्थात् दूसरे के प्रति क्रोध के कारण मिलने पर भी क्रोध नहीं करमा, 'भावे अप्पडिबद्धया' हास्यादि भाव में अनुबंध का परित्याग करना, अर्थात् हास्यादि विषयक आग्रह का छोड़ना, "विणिवणया" असंथम के स्थानों से अपने को दूर रखना "विविक्त सयणासणसेवणया" एकान्तवसतिको और आसन का सेवन करना-अर्थात् स्त्री पशु पण्डकरहित एकान्त वसति आदि का सेवन करना, “सोइंदियसंवरे" श्रोत्रेन्द्रिय को उसके विषयभूत शब्द से "गरहणया" शु३ समीर पाताना हो यता तथा 'खमावणया' क्षमापना-असताषी भने अन्य क्षमा मा५वी "सुयसहायया" श्रुतन १ पातानु सहाय: भान अथवा श्रुतना मण्यास ४२३। “विउसमणया" બીજાની ઉપર ક્રોધ કરવાનું કારણ મલવા છતાં પણ ક્રોધ કરવાથી પિતે પિતાને टीवी वा. भात भी ५२ ४३५ न ४२वा. "भावे अप्पडिवद्धया" हास्य વિગેરે ભાવમાં અનુબંધ ન કરે. અર્થાત્ હાસ્યાદિવિષયમાં આગ્રહ ન रामवी. "विणिवट्टणया" मसयम स्थानाथी पाते (२ २. "विवित्तसयणासणसेवणया' सान्त सति भने भासननु सेवन ४२: अर्थात श्री ५४ ५४ २ति-वारनी मेन्त सति बिरेनु सेवन ४२. "सोइंदिय भ० ५७
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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