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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१७ उ०३ सू०१ जीवानामेजनावत्वनिरूपणम् ४३१ 'एवं जाव देवदव्वेयणा' एवं यावत् देव द्रव्यैजना यावरपदेन स्नुष्यैजना संग्राह्या यथा नारकद्रव्यैजनातिदेशेन तिर्यग्योनि वद्रव्यैजना ज्ञाता भवति तथैव मनुष्यद्रव्यैजना देवद्रव्यैजनाऽपि च ज्ञातव्या, यस्मात् मनुष्याः देव.श्च स्व स्वस्थाने अवन्ति वर्तन्ते वय॑न्ति ते तत्र वर्तमाना मनुष्यद्रव्यैजनां देवद्रव्यैजनाम् अनुभूतवन्तोऽनुमान्ति अनुभविष्यन्ति च तस्मादेव कारणात मनुष्यद्रव्यैजना देवद्रव्यजनेति यथायथं नाम उमयोः उमयत्र भवतीति भावः। द्रव्यैजनां निरूप्य क्षेत्रैजनां निरूपयितुं प्रश्नयनाह-'खेत्तेयणा ण भंते !' इत्यादि । 'खेत्तेयणा णं भंते !' क्षेत्रजना खलु भदन्त ! 'काविहा पन्नचा' कतिविधा प्रज्ञप्ता, भगवा. करेंगे उसी कारण इसका नाम तियग्यो निकद्रव्यैजना ऐसा हुआ है। "एवं जाव देवदव्वेयणा' इसी प्रकार का कथन यावत्-मनुष्य द्रव्यैजना के विषय में और देवद्रव्यैजना के विषय में भी जानना चाहिये क्योंकि मनुष्य और देव अपने२ स्थान पर पहिले रहे हैं, अब भी वे वहां रहते हैं और आगे भी वे वहां रहेंगे। उन्होंने वहां रहकर मनुष्य द्रव्यैजना और देवद्रव्यैजना का अनुभव किया है, अब भी वे उसका अनुभव कर रहे हैं और आगे भी वे उसका अनुभव करेंगे। इसी कारण इन" दोनों का नाम मनुष्यद्रव्यैजना और देवद्रव्यैजना ऐसा हुआ है। इस प्रकार से द्रव्यैजना का निरूपण करके अप सूत्रकार क्षेत्रैजना का निरूपण करते हैं-इस में गौतमने प्रभु ले ऐसा पूछा है-'खेत्तेयणाणं भंते! काविहा पन्नत्ता' हे अदन्त ! क्षेत्रैजना कितने प्रकार की कही गई है? આગળ ભવિષ્ય કાળમાં પણ અનુભવ કરશે. તે જ કારણથી તેનું નામ तिय योनि द्रव्य नाम थयु छे. “एवं जाव देवव्वेयणा' से રીતનું કથન યાવત મનુષ્ય દ્રવ્ય એજનાના વિષયમાં અને દેવદ્રવ્ય એજનાના વિષયમાં પણ સમજી લેવું. કેમ કે મનુષ્ય અને દેવ પિતપિતાના સ્થાન પર પહેલા રહ્યા છે. વર્તમાનમાં રહે છે. અને ભવિષ્યમાં પણ રહેશે. તેઓએ ત્યાં રહીને મનુષ્ય દ્રવ્ય એજના અને દેવ દ્રવ્ય એજનાને અનુભવ કર્યો છે. વર્તમાનમાં પણ અનુભવ કરી રહ્યા છે અને આગળ ભવિષ્યમાં પણ અનુભવ કરશે. એજ કારણથી તે બંનેનું નામ, મનુષ્ય દ્રવ્ય એજના અને દેવદ્રવ્ય એજના એ પ્રમાણે થયુ છે. આ રીતે દ્રવ્ય એજનાનું નિરૂપણ કરીને સૂત્રકાર ક્ષેત્ર એજનાનું નિરૂપણ ४रे छ. तभा गौतम स्वामी प्रभु से पूछे छे है-"खेत्तेयणाणं भंते ! कइविहा पण्णता" माप । क्षेत्र मा ८६ अरनी ही छ. तना
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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