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________________ भगवती सूत्रे ४१६ स्पर्शवत्र जीवे लभ्यते 'से तेणद्वेगं गोयपा ! जाव चिट्टित्तए' तत्तेनार्थेन गौतम ! यात्रत् स्थातुम् अत्र यावत्पदेन 'देवे' इत्यारभ्य ' पुच्चामेत्र खत्री भवित्ता नो अरु विनित्ता' इत्यन्तस्य ग्रहणं भवति यतस्तस्य जीवस्य कालत्वादिकं प्रज्ञायतेऽतो नासौ तथागतो जीत्रो रूपी सन् अरूपिणम् आत्मानं विकुर्व्य स्वातुम् प्रभुरिति भावः । संसारिजीवमाश्रित्य कथितम् । सिद्धजीवमाश्रित्य आह'सच्चेव णं भंते !' स एव खलु भदन्त ! ' से जीवे पुण्यामेव अह्नवी भवित्ता' स जीनः पूर्वमेव अवी यूवा अरूपी सन् 'पभू रूत्रिं विउच्चित्ताणं चिट्टित्तए' प्रभुः रूपिगं विकुर्व्य रूपी मूत्वे यर्थः खलु स्थातुम् रूपादिरहितो जीवः किं रूपादिम ग्रहण हुआ है। तात्पर्य कहने का यह है कि जीव में पांच वर्णवत्ता, दिगन्धवत्ता, पंच रसवत्ता, और आठ स्पर्शवत्ता प्रतीत होती है । 'से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव चिट्ठित्तए' इसी कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि देव वैक्रिकरण के काल से पहिले ही रूपी हो करके याद में अमूर्त आत्मा हो कर के रह सकने के लिये समर्थ नहीं है। यहां यावस्पद से 'देवे' यहां से आरम्भ करके ' पुन्वामेव रुवीभवित्तानो पभू अरूवि उवित्ता' यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है। जिस कारण से उस जीव में कालत्वादिक-कृष्णवर्णवाला आदिरूप व्यवहार- सामान्यजनों द्वारा भी किया जाता है (से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव चिट्ठित्तए) इसी कारण तथागत यह जीव रूरी होता हुआ अरूपी रूप से अपने आपकी विकुर्वणा नहीं कर सकता है। यह पूर्वोक्त कथन संसारी जीव की अपेक्षा से कहा गया है। अब सिद्ध जीव की अपेक्षा से सूत्रकार कथन करते हैं-'सच्चेव णं भते ! से जीवे पुव्वामेन अरूबी भवित्ता पभू रूवि वित्ताणं चिट्टित्तए' इस सूत्र द्वारा गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है छे " से तेणट्ठेणं गोयमा जाव चिट्टित्तए" हे गोवभ ! मे अरथी में मे કહ્યુ` છે કે દેવ વૈક્રિય કરણ કાળની પહેલાથી જ રૂપી થઈને તે પછી આત્માને અમૂત કહીને રહેવા સમથ થતા નથી. અહિયાં યાવત્ પદથી 'देवे' मे पहुंथी सर्धने “पुत्र मेव रूवी भविता नो पभू अरू विउत्तिए " અહિ' સુધીના પાઠ ગ્રહણ થયા છે. જે કારણથી તે જીવમાં કાલાદિક— કૃષ્ણવર્ણ વાળા આદિ રૂપ વ્યવહાર સામાન્ય જના દ્વારા પણ કરાય છે. એજ કારણે તથાગત આ જીવ રૂપી મનીને પાતે પાતાને અરૂપી રૂપથી વિ ા કરી શકતા નથી. આ જીવની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યું છે, હવે સિદ્ધ જીવની અપેક્ષાથી સઘળુ પૂર્વોક્ત કથન સસારી સૂત્રકાર કથન કરે छे. “ सच्चेव णं भंते ! से जीवे पुण्वामेत्र अरुत्री भवित्ता पभू रुवी विवव्वित्ताणं चिट्ठित्तए” मा सूत्र द्वारा गौतभ
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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