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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १७ उ० २ सू० ३ शरीरजीवयोभिन्नत्वनिरूपणम् ४०३ ज्ञानावरणीये यावर अंतराये वर्तमानस्य देहिनो यावत् जीवात्मा । अथ प्रथमयावत्पदेन दर्शनावरणीय-वेदनीय-मोहनीयायुष्यनामगोत्राणां संग्रहः, द्वितीयस्य यावत्पदस्य पूर्ववदेवार्थः । अथ लेश्यामारभ्य उपयोगपर्यन्तविषये परमतमाह'एवं इस्पादि । 'एवं कण्हलेस्साए जाव मुक्कले स्साए' एवं कृष्णलेश्यायाम् यावत शुक्कलेश्यायाम् अत्र यावत्पदेन नीलकापोतिकतेजपालेश्यानां संग्रहः 'सम्भट्टिीए ३' सम्यग्दृष्टौ मियादृष्टौ सम्यमिथ्यदृष्टौ च 'एवं चक्खुदसणे ४' एवं चक्षुदर्शने अधिदर्शने केवलदर्शने च 'आभिणिवोहियणाणे ५, आभिनियोधिकज्ञाने श्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यवज्ञान केवलज्ञानेपु. 'मति अन्नाणे३' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानेषु 'आहारसमाए ४' आहारसंज्ञायाम् ४ आहारवरणीय यावत् शब्द याह्य-दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय, आयुनाम, गोश और अन्तराय इनमें धर्तमान देही जीवात्मा से भिन है और जीवक्षमा शरीर से भिन्न है । लेशा से लेकर उपयोग पर्यन्त विषय में परमत क्या है ? इस बात को सूत्रकार कहते हैं-'एवं कण्ह. लेस्साए जाव सुक्कालेस्साए' कृष्णलेश्या में यावत्पद ग्राह्य-नीललेश्या में, कापोतिक लेश्या में, तेजोलेश्या में, और पद्मलेश्या में, 'सम्मधिहीए ३. सम्यग्दृष्टि में मिथ्यादृष्टि में, सम्यग् मिथ्यादृष्टि में 'एवं चक्खुदसणे ४' चक्षुर्दर्शन में अचक्षुदर्शन में, अवधिदर्शन में और केवल दर्शन में 'आभिणियोहियणाणे५' आभिनिघोधिज्ञान में, श्रुवज्ञान में अवधिज्ञान में, मनापर्यवज्ञान में और केवलज्ञान में, 'मतिअन्नाणे ३' 'मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभङ्गज्ञान में, 'आहारसनाए ४' आहारसंज्ञा में, 'मिन्न छ भने पामा शरीरथी मिन्न छ. मेक शत "णाणावरणीज्जे जाव अंतराइए" ज्ञानावरणीय यावत् शनापीय, वहनीय, મોહનીય, આયુ, નામ ગોત્ર અને અંતરાયમાં વર્તમાન દેહને જીવ જીવાત્માથી ભિન્ન છે. અને જીવાત્મા શરીરથી ભિન્ન છે. લેશ્યાથી લઈને ઉપયોગ પર્વતના વિષયમાં પરમત શું છે. એ વાત સૂત્રકાર બતાવે ®. "एवं कन्गलेस्साए जाव सुक्कालेस्साप" श्यामां यावत् नीलसश्यामा पति: श्याम तनवेश्याम मन पश्याम "सम्म दिद्विए(३)" सभ्यष्टिमा मिथ्याष्टिमा सभ्यम् मिथ्याष्टिमा यक्षु शनमा अयशनमा मधिशनमा भने शनमा “आभिणियोहियणाणे(५)" આભિનિષિકજ્ઞાનમાં, શ્રુતજ્ઞાનમાં, અવધિજ્ઞાનમાં, મન:પર્યવજ્ઞાન भने विज्ञानमा, "मति अन्नाणे" भति अज्ञानभां, श्रुत अज्ञानभा विज्ञानमा “आहारसन्नाए(४) " माहारस शाम, पायज्ञामा परि
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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