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________________ ___ भगवती पदपयोग न कृत्वा अपि शब्द प्रयुङ्क्ते ? इति चेत् एकजीवाधिकारे एकस्मिन् जीवे अनेकक्रियावत्यस्यासंभवात् स्यात् पदप्रयोगः कृतः अनेकजीवविचारे तु जोवानामनेकत्वात् एकदाऽपि अनेकक्रियावत्वसंभवे अत्र सिय पदं विहाय 'वि' शब्दप्रयोगः कृतः ‘एवं पुढवीकाइया वि एवं पृथिवीकायिका अपि यथा जीवानां त्रिक्रियादिमत्वं कथितं तथा पृथिव्याधे केन्द्रियादीनामपि त्रिचतुःपञ्चक्रियावत्वं बोध्यम् ‘एवं जाव मणुस्सा' एवं यावन्मनुष्याः एवं यथोक्तक्रमण दण्डकपरम्परया मनुष्यानामपि त्रिचतुःपञ्चक्रियावत्वं ज्ञातव्यम् - अन्या वक्तव्यता पूर्ववदेव विज्ञेया। देवनारकयोरौदारिकशरीराभावादत्र तयोन ग्रहणं कृतमिति जय बहु जीव के विषय में दण्डक का उच्चारण किया जावेगा तय वहाँ 'लिय' शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिये । किन्तु 'वि' शब्द का प्रयोग करना चाहिये इसका कारण ऐसा है कि एक जीवाधिकार में • एक जीव में एक काल में अनेक क्रियावत्व का असंभव है अतः वहां स्यात् पद का प्रयोग किया गया है । परन्तु अनेक जीव विचार में जीवों की अनेकता होने से एक कालमें भी अनेक क्रियायत्व का संभव है इसलिये यहां सिय को छोडकर 'वि' शब्द का प्रयोग करने को कहा गया है । 'एवं पुढवीकाइया वि' जिस प्रकार से जीवों के त्रिक्रियादिमत्व कहा गया है उसी प्रकार से पृथिव्यादिएकेन्द्रिय जीवों को भी तीन, चार और पांच क्रियावाला कहलेना चाहिये । 'एवं जाव मणुस्सा' इस प्रकार यथोक्तक्रमानुमार दण्डक परम्परा को लेकर मनुष्यों को भी तीन चार और पांच क्रियाओं से युक्तता जाननी चाहिये । देव और છે. પરંતુ જયારે બહુ જીના વિષયમાં દંડકનું ઉચ્ચ પણ કરવામાં આવે त्यारे त्या "सिय" से शनी प्रयोग थतेनथी. परंतु "वि". शहना પ્રયોગ કરે જઈ એ તેનું કારણ એવું છે કે એક જવાધિકારમાં એક Hi समयमा मन लियापान असम छे. रथी त्या "स्यात्" એ પદને પ્રવેશ કરવામાં આવ્યો છે, પરંતુ અનેક જીવોના વિચારમાં જીમાં અનેકતા હોવાથી એક કાળમાં પણ અનેક ક્રિયાપણુને સંભવ છે. थी त्या "सिय" २५६ छसि "वि" शम्न प्रयास ४२वार्नु छ "एव पुढविकाइयावि" २ रीत सार्नु त्रय लिया पाणु यु छ तेश રીતે પ્રી વિગેરે એકેન્દ્રિય જીને પણ ત્રણ ચાર અને પાંચ ક્રિયાવાળા सभरवा "एवं जाव मणुस्मा" मे शa 64।तभानुसार ४४नी પરંપરાને લઈને મનુષ્યને પણ્ ત્રણ, ચાર અને પાંચ ક્રિયાઓથી યુક્ત સમજવા, દેવ નારકોમાં ઔદારિક શરીર થતું નથી. તેથી ત્યાં તેનું
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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