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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०१७ उ०१ सू०२ तालदृष्टान्तेन कायिक्यादिक्रियानि० ३५९ पिणं जीवाणं सरीरेहिनो ताले निव्वत्तिए' येषामपि खलु जीवानां शरीरेभ्यो वाल:-तालक्षः निर्वर्तितः 'जाव चउहि पुढा' यायचमिः स्पृष्टाः, अत्र यावत्पदेन गोयमा ! जावं च णं से कंदे ते विणं जीवा काइयाए' इत्यत्तस्य ग्रहणं भवति एतेषां जीवानां चतत्र एव क्रिया भवन्ति न तु माणातिपातक्रिया तान् पति तेषां दूरवर्तित्वादितिभावः ४ । 'जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्वत्तिए' येषामपि खलु जीवानां शरीरेभ्यः कन्दो निर्वर्तितः' 'तेविय णं जीवे जाव पंचहि पुट्ठा' तेऽपि च खलु जीवाः यावत् पञ्चभिः स्पृष्टाः, एतेषां प्राणातिपातक्रियां पति साक्षात्कारणत्वात् पश्चापि क्रिया भवन्तीति भावः ५। 'जे वि से जीवा अहे वीसप्ताए पच्चोवयमाणस्स जाव पंचहि पुट्टा' ये ऽपि च ते जीवा अधो ग्रहण हुआ है । क्यों कि प्राणातिपात क्रिया में वह पुरुष साक्षात्कारण नहीं बना है। साक्षात्कारण तो उसमें कन्द है। 'जोसि पिणं जीवाणं सरीरेहितो मूले णिवत्तिए खधे णित्रत्तिए जाव-चरहिं पुट्टो' तथा जिन जीवों के शरीरों से वह तालवृक्ष निष्पन्न हुआ है। 'जाव चाहिं पुट्ठा' यावत् वे चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। यहां यावस्पद से' 'ते वि जीवा काइयाए' यहाँ तक का पाठ गृहीत हुआ है।४ 'जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्वत्तिए' जिन जीवों के शरीरों से कन्द निर्तित हुआ है। 'ते विष णं जीवा जाव पंचहि पुट्ठा' वे जीव भी यावत् पांच क्रियाओं से स्पृष्ट हैं। क्योंकि इनके प्राणातिपात क्रिया के प्रति साक्षात्कारणता है।५ 'जे वि से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्त जाय पंचहिं पुट्ठा' तथा नीचे गिरते हुए कन्दादिक के प्रति जो થશે કેમ કે પ્રાણાતિપાત કિયામાં તે પુરુષ સાક્ષાત કારણ હતું નથી. तभा साक्षात् २ त छे. "जेसि पिणं जीवाणं सरिरेहि तो ताले निव्वत्तिए" तथा रेवान शरीशथी त तवृक्ष मन्यु डायत । “जाव चउहि पुट्ठा" यावत् यार लियाथी स्पृष्ट थाय छ. माडियां यावत् ५४थी "वे वि जीवा काइयाए माह सुधाना पा: अहए थयो छे. (४) जेसि पि णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्वचिए"२वाना शरीराथी ४४ मन्यु डाय "ते वि य गं जीवा जाव पंचहि पुट्ठा" ते ७ ५ यावत् पांच लियामाथी स्पृष्ट थाय छे. भ तमा प्रायतिपात Aqामा प्रत्यक्ष २ छे. (५) “जे वि से जीवा आहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स जाव पंचहि पुट्ठा." तथा नये ५७ ४
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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