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________________ प्रमैन्द्रिका टीका श०१६ ०४ सु०२ शक्रेन्द्रविषयकप्रश्नस्पष्टीकरणम् १४५ एवशतो भवति परिणामः तदनन्तरं यावति अंशे न परिणामोऽभूत् प्रथमसमये, तावति अंशे द्वितीयसमये न परिणामो भवति एवं व्यादि समयाद्यारभ्य अन्तिमसमयपर्यन्तं परिणामो जायते इति प्रथमसमयस्य नाशानन्तरमेव तत्र परिणत इति व्यवहारो भवति, प्रथमसमयापेक्षया परिणत इति व्यवहारो भूतकालिकः, द्वितीयादिसमयापेक्षया च परिणमतीति वर्त्तमानापदेशोऽपि भवतीति उभयमपि अविरुद्धमेवेति कृत्या परिणमन्तीति तत्र परिणता इति कथं न सुसंगत मेवेति मानना चाहिये कि प्रथम समय में ही अंशतः परिणाम होता है। इसके बाद द्वितीय समय में जितना वहां परिणाम होना चाहिये था वह वहाँ प्रथम समय में नहीं होता है, इसी प्रकार से तृतीय समय में जितना परिणाम होना चाहिये वह द्वितीय समय में वहां नहीं होता है। इस प्रकार प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक वहां परिणमन होता रहता है अतः जब प्रथम समय नष्ट हो जाता है-तब उस समय में जो परिणाम वहां हुआ है उस परिणाम में 'परिणत' ऐसा व्यपदेश हो जाता है । यह व्यपदेश भूतकालिक है । क्योंकि यह परिणाम प्रथम समय में हो चुका है तथा द्वितीयादि समयों की अपेक्षा वह परिणाम जो अभी होना पाकी है वहां हो रहा है । ऐसा व्यपदेश होता हैं, अतः 'परिणमति' ऐसा वर्तमान कालिक व्यपदेश भी होता है और प्रथम समय की अपेक्षा वह परिणाम हो चुका है इसलिये परिणत ऐसा भी व्यपदेश होता है इस प्रकार 'परिणमन्ती परिणतः' ये दोनों व्यप - થશે જેથી એવું જ માનવુ' જોઈએ કે પ્રથમ સમયમાં જ અંશતઃ પરિણામ થાય છે તે પછી ખીજા સમયમાં ત્યાં જેટલુ' પરિણામ થવુ' જોઈએ તે તેમાં પ્રથમ સમયમાં થતું નથી એજ રીતે ત્રીજા સમયમાં જેટલું' પરિણામ થવું જોઈ એ તે બીજા સમયમાં થતુ' નથી આ રીતે પ્રથમ સમયથી લઈને અ'તિમ સમય સુધી તેમાં પરિણામ થતુ જ રહે છે. તેથી જ્યારે પ્રથમ સમય નાશ थाभे छे. त्यारे ते सभयभां ने परिणाम त्यां थयुं छे ते परिलाभभां " परिणत” थेवे। व्यपदेश (व्यवहार) था लय हे या व्यथहेश ( व्यवहुरा) भूतકાળ સમધી છે. કેમકે આ પરિણામ તેમાં પ્રથમ સમયમાં થઈ ચુકયુ' છે. તથા બીજા વિગેરે સમર્ચાની અપેક્ષાએ તે પરિણામ કે જે હજી થવાનુ માકી છે તે થઈ રહ્યું शेवे। व्यवहार अवामां आवे छे. मेथी " परिण मंति" येवो वर्तमान संबंधी व्यवहार पशु थाय छे। अने पडेला सभयनी અપેક્ષાએ તે પરિણત થઈ ચુકયું છે, જેથી ‘પરિણતા’ એવા પણ વ્યવહાર थाय छे मा रीते “परिणमन्ती परिणतः " मे भन्ने अमरनो व्यपदेश थवाभां भ० १९
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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