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________________ प्रमैयान्द्रका टीका श० १६ उ० ४ सू० १ कर्मक्षपणनिरूपणम् 'एवं बुच्चई एवमुच्यते 'जाइयं अनगिलायए समणे जिग्गंथे कम्म णिज्जरेइ' यावत्कम् अन्नग्लायक श्रमणो निग्रन्थः कर्म निर्जरयति, तंचेव जाच बासकोडाकोडीए वा नो खवयंति' तदेव यावत् वर्षकोटिकोटया वा नो क्षपयन्ति नारकाः अत्र यावत्पदेन 'एवइयं फम्म नेरइएसु नेरइया' इत्यारभ्य 'वासकोडीए वा वासकोडीहिं बा' इत्यन्तः सोऽपि प्रश्नग्रन्थो माया सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति जाव विहरई' तदेवं भदन्त ! २ इति यामद् विहरति, हे भदन्त ! यद् देवानु. मियेण कर्मक्षपणविषये श्रमणनारकयोर्भेदः सयुक्तिकः कथितः इति तत्सर्वमपि हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि "जावश्यं अन्नगलायए समणे णिग्गंथे कर लिज्जरेइ जितने कर्मों की निर्जरा अन्नग्लायक-नित्य भोजी साधु-अक्षण निम्रन्थ एक्षदिवस में करता है "तं चेव जाव चासकोडाकोडीए वा नो खपति" उतने कर्मों की निर्जरा यावत् कोटाकोटी वर्षों तक भी नरक के नैरथिक जीव नहीं कर सकते हैं । यहाँ यावस्पद से "एमइयं कम्म रहएल्लु नेरक्या" यहाँ से लगाकर "वासको डीए वा वाकोडीहिं पा" यहां तक का सर्वप्रश्नग्रन्थ ग्रहण कर लेना चाहिये "सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरई' हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय ने जो यह कर्मक्षपण के विषय में श्रमणनारक का भेद " जावइयं भन्नगिलायए खमणे निग्गंथे कम्म निज्जरेइ "२८ भी न सन्नसाय नित्य से साधु-श्रम निथ से छे. "तंचेव जाव वास कोहीए वा नो खवयंति" गेटमा भाना नि नभा २स ना२४ १ टाट वर्षा सुधीमi yey शता नथी महिया यावत् प६था "एवइय कम्मं नेरइरसु नेरइया" महिथा दान “वासकोडीए वा वासकोडीहि વા” અહિ સુધીને સઘળે જ પ્રોત્તર રૂ૫ ગ્રંથ ગ્રહણ થયેલ છે તે સમજી 1. " सेव भते ! सेवं भंते ! चि जाव विहर" 3 मावन् ! मा५ हेवानु. પ્રિયે ! આ કર્મ ક્ષપશુના વિષયમાં શ્રમણ અને નારકને ભેદ યુકિત સહિત કહ્યો છે. તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહિને તે ગૌતમ પ્રભુને
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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