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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ ३० ४ सू० १ कर्मक्षपणनिरूपणम् १०७ नाह-'गो' इत्यादिना 'णो इणढे सपढे' नायमर्थः समर्थः, हे गौतम ! यावत् प्रमाणकं कर्म सलकालेनापि साधुर्विनाशयति तावत्पमाणकं कर्म नारकाः नरके वर्तमाना न विनाशयन्ति इत्यर्थः, एवमग्रेऽपि उत्तरवाक्यस्याओं ज्ञातव्य इति । 'जावश्यं णं भंते' यावत्कं खलु भदन्त ! 'चउत्पमत्तिए' चतुर्थभक्तका-एकोपवासको 'समणो निग्गथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'कम्म निन्नरेइ' वर्म निरयति यावत् परिगितं कर्म विनाशयति 'एसइयं कम्मं नरएसु नेरइया' एतावत्कं कर्म नरकेषु नैरधिकाः, 'बालप्लएग वा' वर्षशतेन चा 'वाससएहि वा वर्षशतैर्चा, 'वाससहस्सेण वा' वर्षपहसेण वा किम् 'खवयंति' क्षपयन्ति । भगवानाह-'णो नष्ट करता है उतने फार्म क्या नरकों के दु.ख का अनुभव करते हुए नारक लौ वर्षों में भी नष्ट करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'णो इनटे लमढे हे गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात्-जितने कर्मों की निर्जरा थोडे से भी समय में साधु करता है उतने कर्मों की निर्जरा नरक में वर्तमान नारक जीव अधिक से अधिक काल में भी नहीं कर पाता है। इसी प्रकार से आगे भी उत्तर वाक्य का अर्थ समझना चाहिये । 'जावयं णमंते ! 'हे भदन्त ! जितने 'कम्म' कर्म की 'चउत्यत्तिए'चतुर्थ भक्तक-एकोपवाली-'समणे निग्गंथे श्रमण निन्थ' 'निजरेइ' निर्जरा करता है, 'एवइयं कम्मं नरएस्सु नेरइया घालसरण वा बाससहि वा, वाससहस्लेण वा खवयंति' इतने कर्मों की, नरकों में वर्तमान नारक जीव सौ वर्षों में, अनेक सौ वर्षों में, एक हजार वर्ष में, निर्जरा करता है क्या ? अर्थात् एक उपवास करनेवाला श्रमण છે. તેટલા કર્મ નરકેટમાં દુઃખને અનુભવ કરતા નારક જી વર્ષમાં ५ नष्ट हरीश छ'१ तेना उत्तम प्रभु ४९ छ "णो इणटे सम?" હે ગૌતમ! આમ કહેવું બબર નથી અર્થાત જેટલા કર્મોની નિરજા છેડા સમયમાં સાધુ કરે છે એટલા જ કર્મોની નિરજ નરકમાં રહેલા નારક જીવ વધારેમાં વધારે સમયમાં એટલે કે સેંકડે વર્ષોમાં પણ કરી શકતા નથી. આ प्रभास भासण माता उत्त२ वायामा ५ सम देवा. "जावइयं णं भंते ! भगवन् ! रेटमा “कम्म" भनी 'चउत्थभत्तीए" यतु मरत' मर्थात मे 6सी “समणे निगंथे" भर निथ “निज्जरेइ", नि । ४३ छ-" एवइयं फम्म नरएसु नेरइया वासमएणवा, वाससएहिवा, वाससहस्सेणवा खवयंति" सटसा नि नि नभा रहे हैं' જીવ સે વર્ષમાં કે સેંકડે વર્ષમાં અગર એક હજાર વર્ષમાં કરી શકે છે?’
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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