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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ०४ ० ६ दिविदिक्प्रवहद्वारनिरूपणम् ६०३ 'गोमा ! विमला णं दिसा रुयगाइया, रुयगप्पवहा, चउप्पएसाइया; चउप्पएसवित्थिन्ना अणुत्तरा, लोग पहुच, सेसं जहा अग्गेयीए, नवरं रुयगसंठिया पण्णत्ता, पर्वतमा वि ' हे गौतम ! विमला खलु ऊर्ध्वादिकू रुचकादिका, रुचकआदिर्यस्याः सा तथाविधा, रुचकमवहा - रुचकः प्रवहो - निर्गममूलस्थानं यस्याः सा तथाविधा, चतुष्पदेशादिका चत्वारः मदेशा आदिर्यस्याः सा तथाविधा, चतुष्पदेशविस्तीर्णा चत्वारः प्रदेशाः विस्तीर्णाः - विस्तृताः यस्याः सा तथाविधा चतुष्प्र देशविस्तारवतीत्यर्थः, अनुत्तरा - वृद्धिवर्जिता, लोकं प्रतीत्य- अपेक्ष्य लोकापेक्षयेत्यर्थः असंख्येयमदेशिका, अक्रोकं प्रतीत्य - आश्रित्य अनन्तमदेशिका, लोकं प्रतीत्य सादिका सपर्यवसिता, अलोकं प्रतीत्य सादिका अपर्ययवसिता मज्ञप्ता, नवरं पूर्वीपेक्षया विशेषस्तु रुचकसंस्थिता - रुचकाकारा न तु च्छिन्नमुक्तावलीसंस्थिता प्रज्ञप्ता, एवं - रीत्या, तमा अधोदिगपि रुचकादिका, रुचकप्रवदा, चतुष्पदेशादिका, कहते हैं - 'गोयमा' हे गौतम ! 'विमला णं दिसा रुयगाइया, यगप्पवहा, चउप्परसाइया, चउप्पएसवित्थिन्ना, अणुत्तरा, लोगं पडुच्च सेसं जहा अग्गेयीए' यह विमलादिशा-ऊर्ध्वदिशा रुचक आदिवाली है, इसके निर्गम का मूलस्थान रुचक है, चारप्रदेश इसके आदि हैं चारप्रदेश इसके विस्तीर्ण हैं, वृद्धि से यह वर्जित है, लोक की अपेक्षा से यह असंख्यात प्रदेशोंवाली है, अलोक की अपेक्षा से यह अनन्तप्रदेशवाली है, लोक की अपेक्षा से यह सादि सान्त है और अलोक की अपेक्षा से यह सादि अनन्त है ! पूर्वकथन की अपेक्षा इसके कथन में यदि कोई विशेषता है तो वह ऐसी है कि इस दिशा का आकार रुचक के आकार जैसा है | छिन्नमुक्तावली के जैसा नहीं है। इसी प्रकार का कथन तमो भडावीर अलुना उत्तर- " गोयमा ! " हे गौतम! " विमलाणं दिसा रुगाइया, रुगप्पवहा, 'चउप्पएखाइया, चउप्पएस वित्थिन्ना, अणुत्तरा, लोगं पडुच्च सेस जहा अग्गेयीए " विभसा हिशा ( व हिशा) रु२४ ३५ माहि વાળી છે, તેના નિગ મનું મૂળસ્થાન રુચક છે. ઉવ દિશા આદિમાં ચાર પ્રદેશવાળી છે, તેના ચાર પ્રદેશ વિસ્તીણુ છે, તે વૃદ્ધિથી રહિત છે લેાકની અપેક્ષાએ તે અસખ્યાત પ્રદેશાવાળી છે અને અલેાકની અપેક્ષાએ અનત પ્રદેશાવાળી છે. લાકની અપેક્ષાએ તે આદિસહિત અને અન્તસહિત છે, અલાકની અપેક્ષાએ તે સાઢિ (આદિ સહિત) અને અનન્ત છે. પૂર્વ કથન કરતાં આ કથનમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે આ દિશાના આકાર રુચક્રના જેવા છે, છિન્ન મુક્તાવલીના જેવા નથી. ધ્વદિશાના જેવું જ થન તમેાદેિશા (અધાદિશા) વિષે પશુ સમજવુ' એટલે કે અધાદિશા પણુ રુચઢ
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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