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________________ प्रमेयंचन्द्रिका टीका श० १३ उ०४ सु० ६ दिविदिक्प्रवृहद्वारनिरूपणम् ६०१, सिया, छिन्नमुत्तावलिसंठिया पण्णत्ता' हे गौतम! आग्नेयी खलु दिक्-विदिगि त्यर्थः, रुचकादिका - रुवकः आदिर्यस्याः सा तथाविधा, रूपकप्रवहा रुचकः प्रवहो यस्याः सा तथाविधा, एकप्रदेशादिका - एकः प्रदेशः आदिर्यस्याः सा तथाविधा, यतः एकप्रदेशविस्तीर्णा - एकः प्रदेशो विस्तीर्णो विस्तृतो यस्याः सा तथाविधा, अनुचरा- वृद्धिवर्जिता, अतएवं एकप्रदेशविस्तीर्णां हृति भावः । लोकं प्रतीत्य आश्रित्य अलोकापेक्षयेत्यर्थः, असंख्येयमदेशिका, अलोकं प्रतीत्य अपेक्ष्य, अलोकापेक्षयेत्यर्थः, अनन्तमदेशिका, लोकान्तं घतीत्य आश्रित्य सादिका सपर्यवसिता - सादिसान्ता, अलोकं प्रतीत्य- आश्रित्य, सादिका - आदिसहिता अपर्यवसितायान्तरहिता, चित्रमुक्तावसिंस्थिता - चिकीर्णमुक्तावलीवत् संस्थितं - संस्थानम् आकाशे यस्याः सा तथाविधा प्रज्ञप्ता । ' जमा जहा इंदा, नेरई जहा अग्गेयीं, एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि, जहा अग्गेयी तहा चत्तारि वि विदिसाओ ! याम्या - दक्षिणा दिग् यथा ऐन्द्री पूर्वादिड् प्रतिपादिता तथैव प्रतिपचच्या संठिया पण्णत्ता' आग्नेयी, विदिशा, रुचक आदिवाली है, अर्थात् इस दिशा के पहिले रुचक है इसका निर्गमस्थान भी रुचक है । एक प्रदेश आदि है, एक प्रदेश इसका विस्तृत है। क्योंकि यह अनुत्तरा - वृद्धिवर्जित. है लोक की अपेक्षा से यह असंख्यात प्रदेशोंवाली है, अलोक की अपेक्षा से यह अनन्तप्रदेशोंवाली है । तथा लोक की अपेक्षा से यह सादि सपर्यवसित है, अलोक की अपेक्षा से यह आदि सहित और अन्तरहित है। तथा इसका आकार विकीर्णमुक्तावली के जैसा है 'जमा जहा इंदा, नेरई जहा अग्गेयी, एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चन्तारि, जहा अग्गेयी तहा चन्तारि वि विदिसाओ' दक्षिणदिशा पूर्वदिशा के जैसी कथनचाली है, नैर्ऋती विदिशा आग्नेयी विदिशा के जैसी कथनवाली थाय छे-तेनी पडेलां रुथ छे, तेनु निर्णभस्थान या रुय थे, ४. પ્રદેશ તેના આદિ છે, તેના એક પ્રદેશ વિસ્તૃત છે કારણ કે તે અનુત્તરા, (वृद्धिरहित) छे, सोनी अपेक्षा. ते असभ्यात अद्वेशोवाणी छे, अने અલાકની - અપેક્ષાએ અનતપ્રદેશાવાની છે લેાકની અપેક્ષાએ તે આફ્રિ (ભાદિસહિત) અને સપ વસિત (અન્તવાળી) છે અને અલેાકની અપેક્ષાએ તે સાદિ અને અન્તરહિત છે, તથા તેનાં આકાર વિકી, મુક્તાવલીના જેવા छे." जमा जहा इंदा, नेरई जहा अग्गेयी, एवं जहां इंदा तहा दिखाओ 'चत्तारि - जदा अग्गेयी तहा चत्तारि वि विदिसाओ " पूर्वहिशाना नेवु भे કથન-દક્ષિણ દિશાનું સંમજ્યું અગ્નિ વિદિશાના જેવું જ કથન નૠત્ય દિશા ! •
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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