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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० ४ सू० १ नारकपृथिवीनिरूपणम् ५७३ पूर्वकाले च महारम्मादित्वात् २, अतएव ते तदपेक्षया महानवतराश्चैव भवन्ति ३, एवं महावेदनतराश्चैव भवन्ति, तेषां तदपेक्षया महाकर्मत्वात् ४, किन्तु 'नो सहा अप्पकम्मतरा चेव १, नो अप्पकिरियतरा चेत्र २, नो अप्पासवतरा चेव ३, नो अप्पवेयणतरा चेव ४, नो-नैव किल, तथा तेन प्रकारेण अल्पकर्मतराश्चैव भवन्ति, यथा षष्ठपृथिवी नैरयिकास्तदपेक्षया अल्पकमतरा भवन्ति, नो या तथा ते अल्पक्रियतराश्चैव भवन्ति, यथा पष्ठ पृथिवी नैरयिकास्तदपेक्षया अल्पक्रियातरा नो भवन्ति, नो नैव वा ते तथा अल्पास्रवतराश्चैव भवन्ति यथा पष्ठपृथिवी नैरयिकास्तदपेक्षया अल्पास्त्रवतरा नो भवन्ति नो वा तथा ते अल्पवेदनतराश्चैव । भवन्ति, यथा षष्ठपृथिवी नरयिका अल्पवेदनतरा भवन्ति, तथा सप्तमी पृथिवी. ' स्थिता नेति भावः । 'अप्पड्डियतरा चेत्र १, अप्पज्जुइयतरा चेव २, नो तहा महापरिग्रह आदि वाले होते हैं-इसलिये ये महाक्रियावाले कहे गये हैं। इसी कारण ये उनकी अपेक्षा से महानववाले भी कहे गये हैं। यहां वेदना छठे नरक की अपेक्षा अधिक होती है क्योंकि नारकी जीवरूप से जय यहां कोई नया जीव उत्पन्न होता है तब वह यहां की वेदना के मारे पहिले पहिल पांच सौ ५०० योजनतक ऊँचा उछल जाता है। ऐसी वेदना यहां पर है। किन्तु 'नो तहा अप्पकम्मातरा चेवर' जिस प्रकार छठे नारक के जीव अल्पतर कर्मवाले होते हैं वैसे ये अल्पतर कर्मवाले नहीं होते है ? 'नो अप्पकिरियतरा चेव' उनकी तरह अल्पतर कायादि क्रियावाले नहीं होते हैं २, नो अप्पासवतराचेव ३, अप्पवेयण. तराचेव४'अल्पतर आस्तववाले नहीं होते है और न उनकी तरह अल्पवेदनावाले ही होते हैं ४, किन्तु छठी पृथिवी नरयिकों की अपेक्षा ये 'अप्पड्डियतराचेव ? भणज्जुइयतराचेव २' अल्पऋद्धिवाले होते हैं છે. એ જ કારણે છઠ્ઠી નરકના નારકે કરતાં તેમને મહા આસ્ત્રવવાળા કહ્યા છે. છઠ્ઠી નરક કરતાં સાતમી નરકમાં અધિક વેદનાને અનુભવ કરે પડે છે. કેઈ પણ નવો જીવ જ્યારે ત્યાં ઉન્ન થાય છે ત્યારે ત્યાંની વેદનાને કારણે પહેલી વખત તે તે ૫૦૦ એજન સુધી ઊંચે ઉછળે છે. આટલી બધી वना त्या ३४वी ५ छ. ५२न्तु "नो तहा अप्पकम्मतरा चेत्र" ७४ी नर3ना नाना 41 ६५त२ भात ता नथी, “नो अप्पकिरियतराचेव" quी तमा छटी न२४ नाना Pai E५तर याहयावाणा खाता नथी. “नो जप्पासवतराचेव३ अप्पवेयणतराचेव" तो पतर આવવાળા પણ હોતા નથી અને અલ્પતર વેદનાવાળા પણ હોતા નથી. “अपढियतराचे, अप्पाजुइयाराचेव" ही न२४ नार! ४२di सातभी
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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