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________________ भगवतीसो देवा उपपद्यन्ते, 'एवं जहा गेवेज्जविमाणेनु संखेज्जविन्थडेसु' एवं-पूक्तिरीत्या, यथा अवेयकविमानेषु संख्येयविस्तृतेषु उक्तं तथैव अत्रापि वक्तव्यम् , किन्तु नवरं किण्हपक्खिया, अमनसिद्धिया, तिसु अण्णाणेसु एए न उवत्रज्जंति, न चयन्ति, न पाएनु भागिपंचा' नवरं-पूर्गपेक्षया विशेषस्तु अत्र कृष्णपाक्षिकाः, आत्रसिद्धिकाः त्रिपु अज्ञानेषु मत्यज्ञानश्रुताशानविमङ्गज्ञानलक्षणेषु वर्तमाना एते जीवा न उ 'पद्यन्ते, न च्यवन्ति, न प्रज्ञप्तपदोपलक्षिनेषु च मणितव्या न मज्ञप्वाः सनीति भावः । 'एवं च अनुत्तरविमानेषु संख्येयविस्तूने विमाने सम्यग्दृष्टीनामेवोत्यादमदावाद कृष्णपाक्षिकाभवमिद्धिकव्यज्ञानिनाम् आलापकत्रयेऽपि उत्पाद-च्यवन-सत्ताविषयके मतिषेधः कृतोऽबसेयः, अनुत्तरोपपातिक देव उत्पन्न होते हैं। 'एवं जहागेवेज्जविमाणेलु संखे जविस्थडेसु' इस प्रकार से जैसा पूर्व में संख्यातयोजन विस्तारवाले ग्रेवेयकविमानों में कहा गया है उन्ली प्रकार से यहां पर भी जानना चाहिये। परन्तु 'नवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया तिस्तु अन्नाणेसु एए न उववज्जति, न चयंति, न पण्णत्तेसु भाणियव्या' नवनवेयकों के कथन की अपेक्षा यदि यहां के कथन में कोई विशेषता है तो वह ऐसी है कि मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभङ्गज्ञान इन तीन अज्ञानों में वर्तमान कृष्णपाक्षिक और अभवसिद्धिक जीव यहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं, यहां से उद्वर्तना नहीं करते हैं और न सत्ता में ही यहां होते हैं। इस प्रकार संख्यातयोजन विस्तारवाले अनुत्तरविमान में सम्यग्दृष्टि जीवों का ही उत्पाद होता है, इस कारण वहां तीन अज्ञानवाले कृष्णઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત अनुत्त५पाति ! पन थाय छे. “ एवं जहा गेवेज्जविमाणेसु संज्ज वित्थडेसु" पक्ष २७ ४यन सभ्यात यानना विस्तारमा अवेयर વિમાનોના દેના વિષે કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન સંખ્યાત ચીજननविस्तारवाणा मनुत्तर विमानना हैववि ५ सभा “ नवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया, तिसु अन्नाणेसु एए न उववज्जति, न चयंति न पण्णत्तम भाणियव्या" परन्तु नवयहीना ४थन ४२di मही सेटली विशेषता છે કે સંખ્યાત રોજનના વિસ્તારવાળા અનુત્તર વિમાનમાં કૃષ્ણપાક્ષિક, અભવસિદ્ધિક અને મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અને વિભળજ્ઞાન, આ ત્રણ અજ્ઞાનેથી યુક્ત ની ઉત્પત્તિ થતી નથી, યવન પણ થતું નથી અને એવાં જ ત્યાં વિદ્યમાન પણ હોતા નથી. આ રીતે સંપ્રખ્યાત એજનના વિસ્તારવાળા અનત્તર વિમાનમાં સમ્યગ્દષ્ટિ જીવાને જ ઉત્પાદ, થાય છે તે કારણે ત્રણ
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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