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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० २ ० १ देवविशेषनिरूपणम् ५२९ तदेव, नवरं संखेज्जगा इत्थवेवगा पण्णत्ता, एवं पुरिसत्रेयगा त्रि, नपुं सगवेयगां नत्थि' प्रज्ञप्तेषु तप्तविषयेषु प्रज्ञप्तपदोपलक्षितालापकाधीतेषु असुरकुमारेषु तथैवरत्नप्रभवदेव यथा प्रथमोद्देश के प्रोक्तं तथैवात्रापि वक्तव्यम्, नवरं - विशेषस्तु संख्येयकाः स्त्रीवेदकाः, प्रज्ञप्ता, एवं - तथैव पुरुषवेदका अपि प्रज्ञप्ताः, किन्तु अत्र असुरकुमारादिषु नपुंसक वेदका न सन्ति, 'कोहकसायी सिय अस्थि सिय नस्थि' जइ अस्थि जहणेणं एको वा, दोवा, तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता' क्रोधकपाणिः असुरकुमारावासेषु स्यात् कदाचित् सन्ति, स्यात् - कदाचित् न सन्ति यदा क्रोध कषायिणः सन्ति, तदा जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयो वासन्ति, उत्कृष्टे न तु संख्येयाः, मज्ञप्ताः, 'एवं माणकसायी, मायाकसाथी' कथन जैसा ही है । 'पण्णत्तर तहेव, नवरं संखेज्जना इस्थिवेषा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेयगा वि, नपुंसगवेगा नस्थि' प्रज्ञप्तपदोपलक्षित आलापक में पढे गये असुरकुमारों में रत्नप्रभा की तरह ही जैसा कि प्रथमोदेशक में कहा है उसी प्रकार से कहना चाहिये । परन्तु वहां के कथन की अपेक्षा जो यहां के इस विषयक कथन में विशेषता है वह ऐसी है कि यहां स्त्रीवेदक संख्यात कहे हैं और पुरुषवेदक भी संख्यात कहे गये हैं । यहां नपुंसकवेदक नहीं होते हैं । 'कोहकसायी सिय अस्थि, सिय नत्थि' जइ अस्थि जहण्जेणं एको वा दो वा तिन्नि चा, उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता' असुरकुमारावासों में क्रोधकषायी कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । यदि क्रोधकपायी यहां होते हैं, तो वे जघन्य से एक, या दो या तीन तक होते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात तक होते हैं । 'एवं माणकसायी, माया " સમજવું. पण्णत्तपसु तद्देव, नवरं संखेज्जगा इत्थवेयगा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेगा वि; नपुंगवेयगा नत्थि " अज्ञप्सयहोचलक्षित आसायम्भां महीं पडेवा ઉદ્દેશકના જેવું જ કથન થવુ જોઈએ, પરન્તુ તે કથન કરતાં અસુરકુમારીના કથનમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે-અહી" સ્રીવેકે સખ્યાત કહ્યા છે અને પુરુષવેદા પણુ સંખ્યાત કહ્યા છે અહીં નપુ"સકવેદકા હાતા નથી, 'कोह कसायी सिय अस्थि, सिय नत्थि जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा, दोवा, तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता " मसुरडुभाशवासोभां ङोधउषायी असुरસારા કયારેક હાય છે પણ ખરાં અને કયારેક નથી પણ હાતા જે ત્યાં તેમના સદ્ભાવ હાય છે, તેા ઓછામાં ઓછા એક, એ અથવા ત્રણ અને पधारेभां वधारे सण्यात अधउषायीना सहुलाव होय छे. " एवं माणभ० ६७ ८८
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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