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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ०१० सू० ३ रत्नप्रभादिविशेषनिरूपणम् ४०१ तव्यतामेवाह-आत्मा इति च, नो आत्मा इति च युगपद् वक्तुमशक्यमिति भावः। गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति-'से केणहेणं भंते! एवं वुच्चइ-रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं आयाइय नो आयाइय?' हे भदन्त । वन-अथ, केनार्थेन एवमुच्यते-लमभा पृथिवी स्यात आत्मा-सदरूपा, स्यत् नो आत्मा-असदरूपा, स्यात् अवक्तव्यम्-युगपत् आत्मा इति च, नो आत्मा इतिच शब्देन वक्तुमशक्यं वस्त्विति? भगवान् हेतुं प्रतिपादयति- गोयमा! अप्पणो आइटे आया, परस्त आइढे नो आया, तदुभयस्स आउट्ठे अवत्तव्यं रयणप्पभापुढवी आयाइय नो आयाइय' हे गौतम ! आत्मनः स्वस्याः रत्नप्रभाया एव वर्णादि. पर्यायैः आदिष्टे-आदेशे सति-वर्णादिपर्याय व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः आत्मा भवति स्वपर्यायापेक्षया सदमा भरतीत्यर्थः, परस्य-शर्कराममादिपृथिव्यन्तरस्य व्य है-सर्वथा नहीं। नहीं तो प्रवक्तव्य' इस शब्द द्वारा भी वह निर्दिष्ट नहीं हो सकती। अब इसी बात को जानने के लिये गौतम स्वामी प्रभु से कारण पूछते हैं-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चह, रयणप्पभापुढवी सिय आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं आयाइय नोआयाइय' हे भदन्त! आपने जो रत्नप्रभा पृथिवी को सद्रूप और असद्रूप तथा अवक्तव्य रूप कहा है-सो इसमें कारण क्या है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा' हे गौतम ! 'अप्पणो आइटे आया, परस्स आइडे नो आया, तदुभयस्स आइडे अवसव्वं रयणप्पभापुढवी आयाइय नो आयाइय' रत्नप्रभा पृथिवी अपनी ही वर्णादि-रूप पर्यायों से आदिष्ट होती हैअपने गुणों की अपेक्षा लेकर जय कथित की जाती है-तब वह अपनी पर्यायों की अपेक्षा से ही-सद्रूप होती हैं, दूसरों की-शर्करादि पृथिवि. કહેલ નથી નહીં તો “અવક્તવ્ય” આ શબ્દ દ્વારા પણ તેને નિર્દેશ કરી શકાય નહી હવે એજ વાતને જાણવા માટે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને ४३२५५ पूछे छ-" से केणट्रेणं भंते ! एवं बुच्चइ, रयणप्पभापुढवी सिय आया, सिय नो पाया, सिय अवत्तव्वं आयाइय नो आयाइय" उ भगवन् ! माये રત્નપ્રભા પૃથ્વીને સદુરૂપ, અને અસદુરૂપ તથા અવક્તવ્ય રૂપ શા કારણે કહી છે? महावीर प्रभुना उत्तर-"गोयमा!" गौतम! “अप्पणो आइटै आया, परस्स आइडे नो आया, तदुभयस्स आइडे अवत्तव्यं रयणप्पभापुढवी आयाइए नो आयाइय" २नमा पृथ्वीना तेनी qgle ३५ पर्यायानी अपेक्षा જ્યારે વિચાર કરવામાં આવે તેના ગુણેની અપેક્ષાએ જે તેનું કથન કરવામાં આવે, તે તે સદરૂપ હોય છે, અન્ય શર્કરાદિ પૃથ્વીઓની વર્ણાદિ રૂપ भ० ५१
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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