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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० ९ सू०५ भव्यद्रव्यदेवायुद्वर्त्तननिरूपणम् ३४५ पृथक्त्वेऽन्तर्भावितमवसेयम्, उत्कृष्टेन तु अन्तरम्, अनन्तं कालम् अपाई पुद्गलपरिवर्त देशोनम् भवति, गौतमः पृच्छति - 'देवाहिदेवाणं पुच्छा' हे भदन्त ! देवाधिदेवानां कियन्तं कालम्, अन्तरं भवति ? इति पृच्छा, भगवानाह - 'गोयमा ! नत्थि अंतर' हे गौतम । देवाधिदेवानाम् अर्हताम्, नास्ति अन्तरम्, तेषां मोक्षगमनाद् अन्तर' न भवतीति भावः । गौतमः पृच्छति - 'भावदेवस्स णं पुच्छा' हे भदन्त ! भावदेवस्य खलु कियन्तं कालम् अन्तरं भवति ? इति पृच्छा, भगवानाह - 'गोयमा ! जद्दण्णेणं अंतो मुद्दत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो ' हे गया जो वह मनुष्यभव में उत्पन्न होकर वहां बिना चारित्र का रहाऐसी स्थिति में इतना काल अधिक होने पर भी वह पत्योपयपृथकूव में ही अन्तर्भाषित जानना चाहिये तात्पर्य कहने का यह है कि पल्योपद्मपृथक्त्व की स्थिति समाप्त कर वह धर्मदेव का जीव जब मनुष्य पर्याय में आ गया और वहां वह जब तक चारित्र के बिना रहा तब तक का समय पल्योपमपृथकूत्व से भी कुछ अधिक हो जाता है-अतः जघन्य अन्तर यहाँ पल्योपमपृथक्त्व से कुछ अधिक होना चाहियेपरन्तु सूत्रकार ने तो ऐसा कहा नहीं है इसलिये इसका निर्वाह इस रूप से ही कर लेना चाहिये कि मनुष्यभव का इतना चारित्र बिना का समय पोषम पृथकृत्य के भीतर ही अन्तर्भूत हो गया है। तथा उत्कृष्ट से अन्तर अनन्तकाल तक होता है - यह अनन्तकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तरूप होता है । अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'भावदेवस्स णं पुच्छा' हे भदन्त ! भावदेव का अन्तरकाल कितना होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-' गोधमा ! जहण्णेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं થઈ જાય છે. જો કે મનુષ્યભવમાં ઉત્પન્ન થયા માદ જેટલા સમય તે ચારિત્ર *ગીકાર ન કરે, તેટલા અધિક સમય ધર્મદેવની પર્યાયની પુનઃ પ્રાપ્તિમાં લાગવા જોઇએ આ ગણતરી ધ્યાનમાં લઈને પલ્યાપમપૃથત્ન કરતાં અધિક વિરહકાળ કહેવા જોઈતા હતા, પરન્તુ અહીં પચે પમપૃથકત્વ પ્રમાણ (એકથી લઈને નવ પુલ્યેાપમ પ્રમાણ) જે વિùકાળ કહ્યો છે, તેનું કારણ એ છે કે ચારિત્ર પ્રાપ્તિ વિનાના કાળને આ વિરહકાળની અંદર જ સમાવિષ્ટ કરી લેવામાં આવેલ છે. गौतम स्वाभीने प्रश्न - " भावदेवस्स णं भंते! पुच्छा " से लगवन् ! भावદેવના વિરહકાળ કેટલેા કહ્યો છે? भडावीर अलुना उत्तर- " गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहृत्तं उक्कोसेणं अनंतकालं वणरसइ कालो " हे गौतम! भावद्देवनी विरहमण मोछामां मोछो भ० ४४
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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