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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१२ उ०७ सू०२ जीवोत्पत्तिनिरूपणम् :२६७ द्वीन्द्रियाणाम् प्रतिपादितं तथैव प्रतिपत्तव्यम् , 'याणमंतरजोसिय सोहम्मीसाणाण य जहा असुरकुमाराणं' वानव्यन्तरज्योतिषिकसौधर्म शानानां च एतेषामावासेषु यथा असुरकुमाराणाम् आवासेषु चतुःपष्टिलक्षेपुएकैकस्मिन् आवासे पृथिवीकायादितया एको जीवः सर्वजीवाश्च असकृत् , अथवा अनन्तकृत्वः पूर्वमुत्पन्नाः सन्ति इति प्रतिपादितम् , तथैव वानव्यन्तरादारभ्य ईशानपर्यजीव अनेक बार अधवा अनन्तबार पृथिवीकायिकरूप से अकायिकरूप से, तेजाकायिकरूप से और वनस्पतिकायिकरूप से तो उत्पन्न हुए ही हैं-पर वे वहाँ अनेकवार अथवा अनन्तबार चौहन्द्रिरूप से भी उत्पन्न हो चुके हैं। इसी प्रकार से असंख्यात लाख पंचेन्द्रियतिर्यश्चावासों में से एक २ आवास में एक जीव अथवा सर्व जीव अपनी पंचेन्द्रियतिर्यश्वपर्याय से भी उत्पन्न हो चुके हैं। इसी प्रकार का कथन असंख्यानलाख मनुष्यावासों में से एक २ मनुष्यावास में भी जानना चाहिये अर्थात् एक जीव अथवा सय जीव पंचेन्द्रियावासों में से एक २ आवास में अनेकवार अथवा अनन्तबार अपनी मनुष्य पर्याय से भी उत्पन्न हो चुके हैं । इसी अभिप्राय को लेकर स्त्रकारने ऐसा कहा है कि शेष और कथन द्वीन्द्रियोंकी तरह से जानना चाहिये। 'वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणाण य जहा असुरकुमाराणं' जैसा - कथन ६४ लाख असुरकुमारावालों में से एक जीव और सर्वजीव अने. कबार अधवा अनन्तधार पृथिवीकायिकादिरूप से पहिले उत्पन्न हो चुके ન્દ્રિય રૂપે, પ્રત્યેક પંચેન્દ્રિયતિય ચાવાસમાં તેઓ પૃથવીકાયિકથી લઈને વન સ્પતિકાયિક રૂપે અને પંચેન્દ્રિયતિર્યંચ રૂપે અને પ્રત્યેક મનુષ્યાવાસમાં તેઓ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક રૂપે તથા મનુષ્ય રૂપે પૂર્વે અનેકવાર અથવા અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે. આ પ્રકારે પૃથ્વીકાયિકરૂપે, અપકાયિકરૂપે, તેજકાયિકરૂપે, વાયુકાયિક રૂપે અને વનસ્પતિકાયિકરૂપે ઉત્પન્ન થવાનું કથન તે બધે એક સરખું જ છે. દ્વાદ્રિના કથન કરતા ત્રીન્દ્રિયાદિકના કથનમાં જે म'तर छ ५२ ५४८ ४२पामा मान्यु छ. मा प्ररे " नवरं" या सूत्र५४था an " सेसं जहा बेइदियाण" 20 सूत्रापय-तना थननी मथ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યો છે. "वाणमतरजोइसियसोहम्मीसाणाण य जहा असुरकुमाराणं " ६४ साम . અસુરકુમારાવાસમાંના પ્રત્યેક અસુરકુમારાવાસમાં એક જીવ અને સમરત છ પૂર્વે પૃથ્વી કાયિકાદિ રૂપે અનેકવાર અથવા અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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