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________________ - भगवतीसूत्रे वायसादिभ्यो दसान्ना, कृतकौतुकमङ्गल्यप्रायश्चित्ता, सलिङ्कारविभूषितः, 'मणुन थालिपागसुद्धं अट्ठारसंघजणाकुलं' मनोज्ञम्-सरसम् , स्यालीपाकशुद्धम्-स्थाल्यो पाकेन शुद्धम्, अष्टादशव्यञ्जनाकुलम-अष्टादशप्रकारकशाकादियुक्तम्, 'भोयणं भुत्ते सनाणे तंसि तारिखगंसि वाराघरंसि, वणो महबलकुमार' भोजनं भुक्ता सन् तस्मिन्-पूर्वोक्त, ताशके-विलक्षण वासगृहे, वर्णक:-अस्य वासगृहस्य वर्णनम् एकादशशतके एकादशोद्देशके महावलकुमारप्रकरणे कृतवर्णनानुसारमवसेयम्, 'जाव सयणोवयारकलिए ताए तारिशियाए भारियार सिंगारागारचारुवहां पह रनान आदि से निश्चिन्त पनकर लिकर्म करता है-वायस आदिकों के लिये अन्न का विभाग कर वितरण करता है एवंदुस्वन्न आदि के फल के विनाश के निमित्त कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करता है। बाद में वह अपने समस्त अलंकारों से शरीर को रिभूषित करता है। 'मणुन्न थालिपागसुद्ध, अट्ठारसबंजणाकुलं भोयणं' और इस प्रकार से सुसज्जित बनकर वह फिर सरस भोजन को जो स्थाली में पकाने से बिलकुल अच्छी रीति से पक चुका है-जरा भी कच्चा नहीं है-१८ प्रकार के शाफादि के साथ 'मुत्ते लमाणे' बहुत ही रुचिपूर्वक खाता है। 'तंसि तारिसगंलि बालघरंसि-पण्णओ' भोजलक्रिया समाप्त होने पर फिर वह अपने भाग्यशालियों के योग्य-सिलवण-वासगृह में जाता है-हम बासन का वर्णन ग्यारहवें शतक में, ग्यारहवे उद्देशक में महापलकुमार के प्रकरण में किया गया है तो वैसा ही जानना चाहिये विभूसिए" त्या२ मा त नाना talu पतापान पनि ४२ छे-पायस આદિને માટે અન્નને વિભાગ કરીને વાયસાદિને તેનું દાન કરે છે, અને દુઃસ્વપ્ન આદિના ફલના વિનાશને નિમિત્તે કૌતુક, મંગલ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કરે છે. ત્યાર બાદ તે સમસ્ત અલંકારો વડે પોતાના શરીરને વિભૂષિત કરે छ. "मणु_ थालिपागसुद्ध, अद्वारसर्वजणाकुलं भोयणं " त्या२ माई की। સારી રીતે રંધાયેલા, બિલકુલ કાચા ન હોય એવાં ૧૮ પ્રકારના શાકાદિથી युत मनाशवान “भुत्ते समाणे" रुचिपूर्व वाहन रेछ "तंसि तारिसगंसि यासघरंसि-चण्णओ" ! प्राना साना साकार पाताना વાસગૃહમાંશયનખંડમાં–જાય છે તે શયનખંડ ભાગ્યશાળીઓને વેગ્ય, વિલક્ષણ આદિ વિશેષાવાળે છે અગિયારમાં શતકના અગિયારમાં ઉદ્દેશકમાં મહાબલકુમારના શયનખંડનું જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ શયनपाउनु वन मही ५ अ ४२ मे. “जाव सयणोधयारफ़लिए ताए तारिसियाए भारियाए सिंगारागारचारुवेसाए सद्धिं."
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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