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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१२ उ०५ सू०२ प्राणातिपातादिविरमणनिरूपणम् १८५ आश्रित्य-औदारिकवैक्रियतैजसशरीरपुद्गलापेक्षयेत्यर्थः पञ्चवर्णाः, यावत्-द्विगंन्धा, पञ्चरसा, अष्टस्पर्शाः प्रज्ञप्ता,-शेषं यथा नैरयिकाणाम् प्रतिपादित तथैव प्रतिपत्तव्यम् , तथा च वायुकायिका कार्मणशरीरं प्रतीत्य-आश्रित्य 'पञ्चवर्णा, द्विगन्धाः, पञ्चरसा, चतु:स्पर्शाः प्रज्ञप्ताः, जीवं प्रतीत्य-आश्रित्य तु अवर्णाः, अगन्धाः, अरसाः, अस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः इतिभावः । 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा वाउकाइया' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यथा वायुकायिकाः प्रतिपादिता स्तथैव प्रतिपत्तव्याः, तथा च पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः अपि औदारिकवैक्रियतेजसशरीराणि प्रतीत्य पञ्चवर्णाधष्टस्पर्शाः, प्रज्ञप्ताः, कार्मणशरीरं मतीत्य पञ्चवर्णादि यह औदारिक वैक्रिय, एवं तैजस शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा से है। अर्थात् वायुकायिक जीव औदारिक, वैक्रिय और तैजसशरीर के पुद्गलों की अपेक्षा से पांच वर्णों वाले, यावत्-दो गंधोंवाले, पांच रसोंवाले और आठ स्पों वाले कहे गये हैं-इसके आगे का और कथन नैरयिकों के जैसा जानना चाहिये तथा-वायुकायिक जीव कार्मण शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा से पांच वर्णों वाले, दो गंधोंबाळे, एवं चार स्पों वाले होते हैं। 'जीवं पडुच्च' तथा जीव की अपेक्षा से वायुकायिक जीव विना वर्ण के विना गंध के, विना रस के और विना स्पर्श के होते हैं। 'पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा वाउकाइया' प्रतिपादित वायुकायिकों के जैसा पंचेन्द्रियतियंग्योनिक जीव कहे गये हैं तथा च पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक भी औदारिक, वैक्रिय, एवं तैजसशरीर के पुदलों की अपेक्षा से पांच वर्णी चाले, दो गंधोंवाले, पांच रसोवाले और आठ રિક, તૈજસ, અને વૈકિય શરીરનાં યુદ્ધની અપેક્ષાએ પાંચ વર્ણોવાળા, બે ગધેવાળા, પાંચ રસવાળા અને આઠ સ્પર્શીવાળા હોય છે. ત્યાર પછીનું સમસ્ત કથન નારકના કથન પ્રમાણે જ સમજવું જેમ કે-વાયુકાયિક જીવે કામણુશરીરના પુલેની અપેક્ષાએ પાંચ વર્ણવાળા, બે ગધેવાળા, પાંચ सोपामा भने यार पविणा डाय . “जीवं पडुच्च" न भर ક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તો તેઓ વર્ણરહિત, ગધરહિત, રસરહિત भन शखित डाय छे. "पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा वासकाइया" वायुविहाना रे કથન પંચેન્દ્રિય તિયાના વર્ણાદિના વિષયમાં પણ સમજવું એટલે કે ઔદા. રિક, વૈક્રિય અને તેજસ શરીરના પલેની અપેક્ષાએ પચેન્દ્રિયતિયાને પણું પાંચ વર્ણોવાળા, બે ગધેવાળા, પાચ રવાળા અને આઠ સ્પર્શીવાળા भ० २४
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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