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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१२३०४सू०४ औदारिकादिपुद्गलपरिवर्तनिर्वतनानि. १४१ गृहीतानां च ग्रहणस्यापरिगण्यमानत्वात् अनन्ताभिः उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः इत्यादिसम्यगेवोक्तमितिभावः । गौतमः पृच्छति - 'एयस्स णं भंते ! ओरालियपोग्गल परियहनिष्यचणाकालस्स वेउन्नियोग्गल जाव आणापाणुपोग्गलपरियहनिव्वत्तणाकालस्सय कयरेकयरेर्हितो जात्र विसेसाहिया वा ? ' हे भदन्त ! एतस्य खल औदारिकपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालस्य, बैक्रियपुगल यावत् परिवर्त कार्मणपुद्गल परिवर्तनिर्वर्तनाकालस्य तेज सपुद्रलपरिवर्त निर्वर्तना कालस्य, अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में इन सबकी निष्पत्ति होने का कारण यह है कि एकजीव इनका ग्राहक होता है और पुद्गल अनन्त होते हैं तथा पूर्व गृहीत पुलों को दुबारा ग्रहण करने पर उनकी यहाँ गिनती को नहीं जाती है- अर्थात् पूर्वगृहीत पुद्गल पुनः गृहीत होने पर यहाँ गणना में नहीं लिये जाते हैं- अगृहीत पुद्गल ही गणना में लिये जाते हैं अतः अगृहीत पुद्गलों को ग्रहण करने में अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी जैसा काल लग जाता है - इसीलिये यहां प्रत्येक की निष्पत्ति का काल इतना कहा गया है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'एस्स णं भंते! ओरालियपोग्गपरियहनिव्यत्तणाकालस्स, बेडब्बियपोग्गलपरियह निव्वत्तणाकालस्स जाव आणापाणुरोग्गल परियह निव्वत्तणाकालस्स कपरे कपरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा' हे भदन्त ! इस औदारिकपुलपपरिवर्त निर्वर्तनाकाल के, बैक्रियपुदगलपरिवर्त निर्वतनाकाल के तेजसपुद्गल परिवर्त निर्वर्तनाकाल के, कार्मणपुद्गपरिवर्त निर्वर्तना काल के, થાય છે. આ બધાની નિષ્પત્તિ અન`ત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી કાળમાં થવાનુ’ કારણુ નીચે પ્રમાણે છે— એક જીવ તેમને ગ્રાહક હાય છે અને પુદ્ગલ અનત હાય છે. તથા પૂર્વગૃહીત પુઙ્ગલાને અહીં ગણતરીમાં લેવામાં આવતા નથી—અગૃહીત પુદ્ગલેને જ ગણતરીમાં લેવામાં આવે છે. તેથી અગૃહીત પુદ્દગલાને ગ્રહણ કરવામાં અનંત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી જેટલેા કાળ થઈ જાય છે તે કારણે અહી' પ્રત્યેકની નિષ્પત્તિના કાળ અનંત ઉત્સર્પિણી જેટલે કહેવામાં આવ્યે છે. गौतम स्वाभीनो प्रश्न- " एयत्सणं भंते ! ओरालियपोग्गल परियट्टनिव्व-पोग्गतणाकालस्स, वेउव्त्रियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्ख जाव आणापाणु - परियट्टनिव्वत्तणाकालस्स, य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ?" डे ભગવન્ ! આ ઔદારિક પુદ્ગલપરિવત નિત નાકાળ, વૈક્રિય પુદ્ગલપરિવત નિત નાકાળ, તૈજસ પુદ્ગલપરિવત" નિવત નાકાળ, કામ`ણુ પુદ્ગલપરિવત
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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