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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० ११ सु० ६ सुदर्शनचरितनिरूपणम् ५४ अञ्जलिं कृत्या, एवं-चक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-'एयमेयं देवाणुप्पिा ! जाव तं मुविणं सम्म पडिच्छइ' हे देवानुप्रिया! एवमेतत्-भवत्कथनानुसारमेवैतत वर्तते, यावत्-तथैतत् वर्तते, यथा यूयं वदथ इति कृत्वा-विचार्य तं स्वप्नं सम्यक्सत्यतया प्रतीच्छति-स्वीकरोति, 'पडिच्छित्ता, बलेण रन्ना अब्भणुन्नायासमाणी नाणामणिरंयणभत्तिचित्त जाव अमुष्टेड' प्रतीष्य-स्वीकृत्य, वलेन राज्ञा अभ्यनु. ज्ञाता-आज्ञप्ता सती नानामणिरत्नभक्तिचित्रात् यावत् पूर्वोक्तात् भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति 'अतुरियमचनल जाव गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छ।' अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तया, अविलम्बितया राजहंससद्दश्या गत्या, यत्रैव-स्वक भवनमासीव , तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता सयं भवणमणुप्पविट्ठा' उपागत्य स्वकं भवनम् अनुपविष्टा ॥१०६।। उसने दोनों हाथ जोड़ कर ऐसा कहा-' एयमेयं देवाणुप्पिया! जाव तं सुविणं सरलं पडिच्छा ' हे देवालुप्रिय! आप के कथन के अनु सार ही है, जैसा आप कहते हैं वैसा ही यह है-ऐसा कह कर उसने उस स्वप्न को सत्यरूपसे अंगीयार किया-'पडिच्छित्ता बलेण रन्ना अअणुन्नाया समाणी नाणामणिश्यणभत्तिचित्त जाव अब्भुटेह' अंगीकार करके फिर वह बल राजा की आज्ञा प्राप्त कर उस अनेक प्रकार के रत्नों और मणियों की कारीगरी से युक्त चित्रवाले सिंहासन से उठी 'अतुरियमचवल-जाज गइए जेणेक सए भवणे तेणेव उवागच्छ।' उठकर वह अत्वरिन अचपल एवं असंभ्रान्त चाल से चलकर राजहंस जैसी गतिसे चलकर-अपने सवन की ओर आई और 'उवागच्छित्तासयं भवणमणुपविट्ठा' आकर उसने उस अपने भवन में प्रवेश किया।म०६॥ “एयमेय देवाणुप्पिया । जाव त सुविणं सम्म' पडिच्छइ" उ वानुप्रिया આપની વાત ખરી છે. આપના કહ્યા અનુસાર જ આ સ્વપ્નનું ફળ પ્રાપ્ત થશે. આ પ્રકારના વચને દ્વારા તેમનાં વચનમાં પિતાની અપાર શ્રદ્ધા વ્યક્ત शन तो मतगतनी पातनी २वी२ ध्यो-" पडिच्छित्ता बलेण रन्ना अभगुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्त जाव अमुढेइ" त्यार माह मसरानी અનુમતિ લઈને, વિવિધ રત્નો અને મણિઓની કારીગરીથી યુક્ત, ચિત્રવાળા मद्रासन 6५२थी तेली , " अतुरियमचवल जाव गइए जेणेष सए भवणे तेणेव उवागच्छइ” भने सत्वरित, य५८ भने मस भ्रांत यासथी याबीन (હંસના જેવી ગતિથી ચાલીને) તે પિતાના ભવન તરફ આગળ વધી. " उवागच्छित्ता सयं भवणमणुपविट्टा" पाताना सपन पासे पयान तेमा प्रवेश घ्या. ॥१०॥
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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