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________________ ५०८ भगवती देवापियाः । से जहेयं तुज्झे वदह तिकट्टु तं सुत्रिणं सम्मं पडिच्छई' हे देवानुमियाः ! इच्छितप्रतीच्छितमेतत् सर्वथा हृदयेन अभिलपितम् इष्टं प्रतीष्टं - स्वीकृतमेतत् पुत्रप्राप्तिविषयक स्वप्नदर्शनम्, तत् यथैतत् यूयं वदथ - प्रतिपादयथ, इति कृत्वा - विवार्य, तं स्वप्नं सम्यक्तया प्रतीच्छति - स्वीकरोति, 'पडिच्छित्ता वलेणं रणा अन्भणुन्नाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भासणाओ अन्भु, अभुत्ता' प्रतीष्य तं स्वप्नं सम्यक् स्वीकृत्य बलेन राज्ञा अभ्यनुज्ञाता - आज्ञप्ता सती नानामणिरत्नमक्तिचित्रात्- अनेकमणिरत्नरचना परिपूर्णचित्रयुक्तात् भद्रासनात् श्रेष्ठासनात्, अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय 'अतुरियमचवल जाव गईए, जेणेव सर सय णिज्जे तेणेव उवागच्छइ' अत्वरितम्, अचपलम्, शरीरमनश्रापल्परहितं यथास्यात्तथा, यावत् - असंभ्रान्तया अविलम्वितया राजहंससदृश्या पच्छियमेयं देवाप्पिया से जहेयं तुज्झे वदह तिकट्टु तं सुविण सम्मं पडिच्छह' हे देवानुप्रिय ! यह पुत्रप्राप्ति विषयक स्वप्नदर्शन मुझे हृदय से सर्वथा अभिलषित है, इष्ट है, प्रतीष्ट हैं, स्वीकृत है, जैसा आपने कहा है वह वैसा ही है। इस प्रकार कह कर उसने उस स्वप्न के फल को स्वीकार कर लिया' पडिच्छित्ता बलेणं रण्णा अम्भणुन्नाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अभुट्ठेह अन्भुट्ठेत्ता', स्वप्न के फल को स्वीकार करके वह प्रभावती रानी बल राजा से आज्ञप्त हुई उस नानामणिरत्नों की रचना से परिपूर्ण चित्रों से युक्त भद्रासन से उठी, उठकर वह 'अतुरियमचवल जाव' गईए, जेणेव सए सयणिजे, तेणेव उवागच्छद्द ' अत्वरित, अचपल - शारीरिक मानसिक चपलता रहित ऐसी हंसगति जैसी गति से विना विलम्ब किये, “ इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुपिया! मे जहेय तुझे वह त्ति कट्टु त सुवि सम्म पढिच इ” हे देवानुप्रिय ! या पुत्रप्राप्ति विषयक स्वप्नदर्शन भारा અતઃકરણની ઈચ્છાને અનુરૂપ છે, ઇષ્ટ છે, અત્યન્ત ઇષ્ટ છે અને સ્વીકાય છે. આપે તે સ્વપ્ન વિષે જે કહ્યું તે યથાર્થ જ છે આ પ્રમાણે કહીને તેણે मसरान द्वारा उथित ते स्वप्नइसना स्वीअर ये "पडिच्छित्ता बलेण' रण्णा अग्भणुन्नाया समाणी णाण मणिरयणभत्तिचित्ताओ भहासणाओ अन्भुट्ठेइ, अम्मुट्ठेत्ता" त्यार माह पोताना पती मसरामनी आज्ञा बहने ते विविध भणिરત્નાથી યુક્ત અને ચિત્રાથી અલ'કૃત એવા તે સુખાસન પરથી ઊભી થઈ. ત્યાંથી उहीने "अतुरियमचवल जाव गईए, जेणेव सए स्यणिज्जे, तेणेव उवागच्छइ " त्वरारडिन, थपवता रहित, अने हंसना समान गतिथी, विसरण अर्ध्या विना, मस ब्रान्त३ये तेन्न्यां पोतानी शय्या हुती. त्या यावी, "उगच्छित्ता, "
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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