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________________ ३२२ भगवती सूत्रे 'चयंति, निरंतरंधि वैमाणिया चयंति ' यावत् सा तरमपि ज्योतिषिका वैमानिकाव्यवन्ति, अथ च निरन्तरमपि ज्योतिकावैमानिका / व्यवन्ति । अय नैरयिकादीनामेव विशदीकुस्योत्पादोद्वर्तने प्ररूपयितुमाह-' संतो भने ! नेरइया उपजंति, असंतो भंते! नेरहया उववज्जेति ? ' गाङ्गेयः पृच्छति - हे भवन्त । कि सन्चोद्रव्यार्थतया विद्यमाना नैरयिका उपपद्यन्ते ? हे भदन्त । असन्तो द्रव्यार्थतया अविद्यमाना एवं नैरयिका उपपद्यन्ते ? भगवानाह - ' गया ! संतो नेरइया उववज्र्ज्जति, नो असतो नेरड्या उववज्जति ' हे गाय ! सन्तएवार्थतया विद्यमाना एव नैरहका उपपद्यन्ते, नो असन्तो या विद्यमाना 6 वैमाणिया जाव संतरं पि चेमाणिया चयति निरंतरं चयंति ' यावत् सान्तर भी ज्योतिषिक और वैमानिक ते हैं और निरन्तर भी चवते हैं । अब विशद् रूपसे इन्हीं नैरमिक आदि के उत्पाद एवं उद्धत्तनाकी प्ररूपणा करनेके लिये सूत्रकार कथन करते हैं - इसमें गांगेयने प्रभुसे ऐसा पूछा है ' तो संते! नेरहया उज्जति असतो ते । तेरड्या उववज्जनि ' हे सदन्त ! द्रव्याधिक की दृष्टिसे विद्यमान ऐसे ही नैरयिक उत्पन्न होते हैं, या जो द्रव्यार्थिक दृष्टिसे विद्यमान नहीं हैं ऐसे तैरयिक उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गंगेधा' हे गांगेय ! ' संतो नेरइया 'उववज्जति, नो असतो नेरया जववज्र्ज्जति ' क्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि से विद्यमान ही नारक उत्पन्न होते हैं, अविद्यमान नारक नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं । उत्पन्न पर्याय हुआ करती है- द्रव्य नहीं, अतः जो पदार्थ सूथित खाने भाटे सूत्रर उडे हे " जाव संतरपि वैमाणिया चयंति, निर ंतरपि वैमाणिया चयंति " ज्योतिषि भने वैमानि सान्तर यग्यवे છે. અને નિરંતર પણ ચવે છે, હવે એજ નરકાદ્રિનાં ઉત્પાત અને ઉત્ત નાની વિશદ રૂપે પ્રરૂપણા કરવા માટે સૂકાર નીચે પ્રમાણે કથન કરે છે— गांगेय अशुभारनो प्रश्न - संतो भते । नेरइया उववज्र्ज्जति असंतो भंते ! नेरहया उववज्जति ? " हे लहन्त ! द्रव्यार्थि नयनी अपेक्षाओ ने विद्यमान ડાય છે એવાં નારકા જ ઉત્પન્ન થાય છે, ૐ ત્ર્યાર્થિક નયની અપેક્ષાએ જે વિદ્યમાન નથી એવાં નારકે ઉત્પન્ન થાય છે? महावीर प्रभुना उत्तर- " गगेया ! " डे गांगेय ! " संतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जंति " द्रव्यार्थि नयनी दृष्टिजे विद्यमान નારકા જ નરકામાં ઉત્પન્ન થાય છે, અવિદ્યમાન નારી નરકેશમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. પર્યાય ઉત્પન્ન થયા કરે છે-દ્રવ્ય ઉત્પન્ન થયા કરતું નથી, તેથી જે 1
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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