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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीकाश०९३०३२सू०१८नैरयिकाद्युत्पादादिसान्तरनिरन्तरतानि० ३२१ वणस्सइकाइया, सेसा जहा नेरइया, ' एवं पूर्वोक्तरीत्या यावत् अप्कायिकादि वनस्पतिकायपर्यन्ता नो सान्तरम् उद्वर्तन्ते, अपितु निरन्तरमेव उद्वर्तन्ते, शेषाः द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकमनुष्यवानव्यन्तराः सान्तरमपि उद्वर्तन्ते, अथ च निरन्तरमपि उद्वर्तन्ते, किन्तु 'नवरं जोइसिय वेमाणिया चयंति अभिलाशे' नवरं नैरयिकापेक्षया विशेषस्तु ज्योतिपिकवैमा. निकाः सान्तरमपि ' च्यवन्ति ' अथ च निरन्तरमपि ' च्यवन्ति ' इत्यभिलापोऽबसेयः, तथा च ज्योतिपिकवैमानिकेषु ' उद्वर्तन्ते ' इत्यस्य स्थाने 'च्यवन्ति' इति पदमुपन्यस्याभिलाः संचारणीयः तदेव सूचयम्नाह-'जाव संतरंपि वेमाणिया उद्वर्तना नहीं करते हैं-निरन्नर ही उद्वर्तना करते हैं। ' एवं जाव वणस्मइकाइया-सेसा जहा नेरइया' इसी तरहसे अप्कायिकसे लेकर वनस्पतिकाय तकके जीव सान्तर उद्वर्तना नहीं करते हैं अपि तु निरन्तर ही उद्वर्तना करते हैं। बाकीके और जीव-दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तियंच, तथा मनुष्य एवं वानव्यन्तर ये सब सान्तर भी उतना करते हैं और निरन्तर भी उतना करते हैं। किन्तु 'नवरं जोइसियवेमाणिया चयंति अभिलायो' नैरयिककी अपेक्षा विशेषता ऐसी है कि " ज्योतिषिक और वैमानिक ये सान्तर भी चवते हैं और निरन्तर भी चवते हैं" ऐसा अभिलाप जानना चाहिये, तथा च ज्योतिपिक और वैमानिक इनमें “ उद्वर्तन्ते" के स्थानमें ' च्यवन्ति ' ऐसा क्रियापद रखकर अभिलाप बोलना चाहिये, इसी बात को सूचितः करते हुए सूत्रकार कहते हैं४२ता नथी. तया नित२४ दत्त ना रे छे. “ एव जाव वणस्सइकाइया सेसा जहाँ नेरइया ” मेरी प्रमाणे अ५४ायि४, ४२४॥थि, वायुयि: भने વનસ્પતિકાયિક જી પણ નિરંતર ઉદ્વર્તન કરે છે તેઓ સાન્તર ઉદ્ધના કરતા નથી. બાકીના બધાં -હીન્દ્રિય, ત્રિીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય, પંચેન્દ્રિય તિર્ય ચ, મનુષ્ય અને વનવ્યન્તરે પણ નારકોની જેમ સાન્તર ઉદ્ધतना ४२ छ भने निरत२ इतना ५ ४२ छ “नवर जोइसिया वेमाणिया चयन्ति अभिलावो" ५२न्तु नार। ४२di यातिषिो मन वैमानिकीना અભિલાપમાં એટલી જ વિશેષતા રહેલી છે કે “જેતિષિકો અને વૈમાનિક સાતર પર ચ્યવે છે અને નિરન્તર પણ ચ્યવે છે,” એ અભિલાપ सभा . मेटसे ज्योतिषि मने वैमानिन! मासा५४मा “ उद्वर्त्तन्ते " से " च्यवन्ति" या५६ भूटीन मासा मना नये. मेक पातने भ-४१
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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