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________________ मंगवती सूत्रे ३१६ टीका - इतः पूर्व प्रवेशनकमुक्तम्, तत्पुनरूत्पादोद्वर्तनारूपमिति नैरयिकादीनां जीवानामुत्पादनां च सान्तर निरन्तरतया प्ररूपयितुमाह-'सतरंभंते ' इत्यादि । संतरं भंते ! नेरइया उववज्र्ज्जति, निरंतरं नेरइया उववज्जंति ? ' गाङ्गेयः पृच्छति-हे भदन्त । किं सान्तरं नैरयिका उपपद्यन्ते ? किंवा निरन्तरंनैरयिका उपपद्यन्ते = उत्पद्यन्ते? एवम् 'संतरं असुरकुमारा उववज्जंति, निरंतरं असुरकुमारा उववज्जेति जाव संतरं चेमाणिया उववज्जंति, निरंतरं वैमाणिया उववज्जंति' नैरयिक उत्पादादि सान्तर निरन्तर वक्तव्यता " संतरं भंते ! नेरइया उववज्जंति' इत्यादि । - टीकार्थ - - इसके पहिले प्रवेशनक कहा गया है, यह प्रवेशनक उत्पाद एवं उद्वर्तनारूप होता है अतः इस सूत्र द्वारा सूत्रकार नैरयिक आदि जीवों का उत्पात और उद्वर्तना सान्तर भी होती है और निरन्तर भी होती है इस बातकी प्ररूपणा कर रहे हैं - इसमें गांगेयने प्रभुसे ऐसा 'पूछा है - ' संतरं भते ! नेरया उववज्जंति, निरंतरं नेरहया उववज्जंति' हे भदन्त ! नैरयिकों की जो उत्पत्ति होती है यह सान्तर-व्यवधान सहित होती है या निरन्तर लगातार होती है इसी तरह से 'संतरं असुरकुमारा उववज्जंति, निरंतरं असुरकुमारा उववज्र्ज्जति, जाव संतरं वैमाणिया उववज्जंति, निरन्तरं वैमाणिया उववज्जंति' असुरकुमार क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं ? નૈયિક ઉત્પાદાદિ સાન્તર નિરન્તર વક્તવ્યતા— "" संतरं भंते ! नेरइया उत्रवज्जति " त्यादि ટીકા”——આ પહેલાં પ્રવેશનકનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે આ પ્રવેશનક ઉત્પાદ અને ઉદ્ભના (નિ±ણુ) રૂપ હોય છે તેથી સૂત્રકાર આ સૂત્રદ્વારા નારક વગેરે જીવાના ઉત્પાદ અને ઉદ્દતના સાન્તર પણુ હૈય છે અને નિરંતર પણ હાય છે. એ વાતની પ્રરૂપણા કરે - આ વિષયને અનુલક્ષીને ગાંગેય અણુગાર મહાવીર પ્રભુને એવા પ્રશ્ન पूछे छे " संतर' भेजे ! नेरइया उत्रत्रज्जति, निरन्तर नेरइया उवज्जेति ?” હું બદન્તી નારકાની જે ઉત્પત્તિ થાય છે તે સ,ન્તર (યધાન સહિત– यांतरा सहित ) थाय छे, हे निरंतर (लगातार) थाय हैं ? ४ अभाथे “ सतर असुरकुमारा उववज्र्ज्जति, निरंतर 'असुरकुमारा वज्र्जति, जांब संतर' वैमानिया उवत्रजंति, निरंतर वैमाणिया उत्रवज्जति " અસુરકુમારે। શુ સાન્તર ઉત્પન્ન થાય છે કે નિરન્તર ઉત્પન્ન થાય
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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