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________________ प्रचन्द्रिका टीका २०९ उ. ३१०६ श्रुत्वा प्रतिपन्नावधिना निनिरूपणम् ७५६ भवेत् । ' तस्स णं भते ! केवढ़या अमवसाणा पण्णत्ता ?' हे भदन्त ! तरय खलु श्रुत्वाऽवधिज्ञानिनः कियन्ति अध्यवसानानि अध्यवसायाः प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह - 'गोयमा ! असंखेज्जा' हे गौतम ! श्रुत्वासमुत्पन्नावविक्षानिनः असंख्येयाः अध्यवसाया भवन्ति, ' एवं जहा असोच्चाए तदेव जाव केवलवरनाणदंसणे समुपज्जइ एवं पूर्वोक्तरीत्या यथा 'अश्रुत्वा' इत्यस्मिन् आलापके उक्त तथैवा त्रापि यावत्-ते अध्यवसायाः प्रशस्ताः, नो अप्रशस्ताः, तैश्च प्रसरतैः दर्द्धमानैरध्यवसायैरनन्तेभ्यो नैरयिकेभ्यः भवग्रहणेभ्यः सवग्रहणेभ्य आत्मानं विसंयोजयति, या अपि च ता इमा नैरयिक- तिर्यग्योनिक मनुष्यदेव आत्मानं विसंयोजयति, प्रशस्तै 1 अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं ( तस्स णं भते । केवड्या अज्झवसाणा पण्णत्ता ) हे भदन्त ! उस श्रुत्वा अवधिज्ञानी के अध्यवसान- अध्यवसाय कितने कहे गये हैं-उत्तर में प्रभु कहते हैं - (गोचमा) हे गौतम! ( असंखेज्जा ) उस श्रुत्वा अवधिज्ञानी के अध्यवसाय असंख्यात होते हैं । ( एवं जहा असोचाए तहेव जाव केवलवरनाणदंसणे समुपज्जइ ) इस तरह से जैसा इन अध्यवसायों के विषय में तथा अध्यवसायों से भी आगे केवलज्ञान दर्शन उत्पन्न होने तक का कथन अद्भुत्व के प्रकरण में आलापक में किया गया है वैसा ही कथन यहां पर भी किया गया जानना चाहिये । यावत्-वे अध्यवसाय उसके प्रश स्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते हैं । उन वर्द्धमान प्रशस्त अव्यवसायों के प्रभाव से वह श्रुत्वा अवधिज्ञान अधिपति नैरयिक संबंधी अनन्त भवग्रहणों से अपनी मुक्ति कर लेता है अर्थात् वह मर कर नैरयिकों गौतम स्वाभीना प्रश्न - ( तस्स ण भंते ! केणइया अज्झत्रसानो पण्णचा ? ) હૈ ભદન્ત ! તે શ્રુત્વા અવધિજ્ઞાનીના કેટલા અધ્યવસાય હ્યાં છે ? भडावीर अलुने। उत्तर–“ गोयमा ! अस खेज्जा " हे गौतम! ते श्रुत्वा अवधिज्ञानीना असण्यात अध्यवसाय ह्या छे. ( एवं जहां असोच्चाए तहेव जाव केबलवरनाणदंसणे समुत्पज्जइ ) अध्यवसायोना विषयभां तथा ठेवणज्ञान દન ઉત્પન્ન થવા પન્તના વિષયમાં જેવુ અશ્રુત્વા અધિજ્ઞાનીનું કચન કર વામાં આવ્યુ છે, એવું જ કથન શ્રુત્વા અધિજ્ઞાનીના વિષયમાં પશુ સમજવું, તે કથનનેા સારાશ નીચે પ્રમાણે સમજવા-તેના તે અધ્યવસાયે પ્રશસ્ત જ હાય છે, અપ્રશસ્ત હાતા નથી. તે વર્ધમાન પ્રશસ્ત અધ્યવસાયાના પ્રભાવથી નૈયિક સંબધી અનન્ત ભવગ્રહણેાથી મુક્ત થઈ જાય છે-એટલે કે મરીને ,
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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