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________________ भगवती सूत्र ७४ क्षया विशेषमाह - ' नवरं अभिलावो सोच्चेति, सेसं तं चेत्र निरवसेसं जाव ' नत्ररम् अश्रुला विषयकाभिलापापेक्षया विशेषस्तु श्रुत्वात्रिपयकाभिलापोऽत्र वक्तव्यः, शेषं तदेव पूर्वोक्तमेव निरवशेषं वक्तव्यम् यावत्-यस्य खलु जीवस्य ज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतो भवति, यस्य खलु दर्शनावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतो भवति, यस्य खलु धर्मान्तरायिकाणां कर्मणां क्षयोपशमः कृतो भवति, यस्य चारित्रावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतो भवति, यस्य यतनावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतो भवति, यस्य अध्यवसानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतो भवति, यस्य आभिनिवोधिकज्ञानावरणीय - श्रुतज्ञानवरणीया - वऽधिज्ञानावरणीके आलापक की जो वक्तव्यता कही गई है, वही वक्तव्यता "श्रुत्वा " इस आलापक में भी कहना चाहिये । किन्तु उस आलापक की वक्तव्यता में और इस आलापक की वक्तव्यता में जो भेद है वह इस प्रकार से है - (नवरं अभिलावो सोच्चे ति-सेसं तं चेव निरवसेसं जाव ) कि इस वक्तव्यता में " 'श्रुत्वा " ऐसा पद रखकर इसका आलापक बनाना चाहिये। बाकी का और सब कथन अश्रुत्वा के आलापक जैसा ही जानना चाहिये । यावत्-जिस श्रुत्वा मनुष्य के ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम कृत होता है, जिसके दर्शनावरणीय कर्मो का क्षयोपशम किया हुआ होता है, जिसके धर्मान्तरायिक कर्मों का क्षयोपशम किया गया है, जिसके चारित्रावरणीय कर्मो का क्षयोपशम किया हुआ होता है, जिसके पतनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होता है, जिसके अध्यवसा नावरणीय कर्मो का क्षयोपशम होता है, जिसके अभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होता है, जिसके श्रुतज्ञानावरणीय कम પકમાં જેવી વક્તવ્યતા આગળ કરવામાં આવી છે, એવી જ વક્તવ્યતા શ્રુત્વા” વિષયક આ આલાપકમાં પણ થવી જોઇએ, પરન્તુ તે આલાપકની વક્તવ્યતામાં અને આ આલાપકની વક્તવ્યતામાં આ પ્રમાણે ભેદ્ય ગ્રહણ કરવા જોઈએ. ( नवर अभिलावो सोच्चे ति-सेसं त चेत्र निरवसेसं जाव ) ते आसाय अमां यां “ असोच्चा- अश्रुत्वा " पहनो प्रयोग उरवामां मान्य होय, त्यां मा यासापोभां “ सोच्चा - श्रुत्वा " पहना प्रयोग थव। लेभे माडीनुं समस्त स्थन अश्रुत्वाना आसायी प्रमाणे सभवु नेम? श्रुत्वा मनुष्यना ( કેવલી આદિ પાસે કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મનું શ્રવણુ કરનાર મનુષ્યના ) જ્ઞાના વરણીય કર્મના ક્ષાપશમ થયો હાય છે, જેના દેશનાવરણીય કાના ક્ષપશમ થયે હાય છે, જેના યતનાવરણીય કર્મના ક્ષયાપશમ થયેા હાય છે, જેના અધ્યવસાયાવરણીય કર્મોના ક્ષયાપશમ થયેા હાય છે, જેના લિનિ
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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