SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 551
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमैयचन्द्रिका टीशं०८७०१० सू० ६ कर्मप्रतिनिरूपणम् णिज्जस्स तहेब दडओ भाणियब्बो जाव वेमाणियस्स' एवमुक्तरीत्या यथैव ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः अनन्तै रविभागपरिच्छेदैः आवेष्टित परिवेष्टितः प्रतिपादितस्तथैव दण्डको-दर्शनावरणीयस्यापि कर्मणः अनन्तरविभागपरिच्छेदैः एकैकजीवप्रदेशः आधेष्टितपरिवेष्टितो भाति इतिरूपो दण्डको भणितव्यः, यावत्-नैरयिकादारभ्य वैमानिकपर्यन्तस्य जीवप्रदेशो दर्शनावरणीयकर्मणः अनन्त रविभागपरिच्छेदैरावेष्टितपरिवेष्टितो भवति, ‘एवं जाव अंतराइयस्स भाणियवं' एवं पूर्वोक्तरीत्यैव यावत्-वेदनीय मोहनीय-आयुष्क-नाम-गोत्रस्य-आन्तरायिकस्य च कर्मणः अनन्तरविभागपरिच्छेदेयीवत्पदेश आवेष्टितपरिवेष्टितो भवति इति भणितव्यम् किन्तु ' नवरं वेयणिज्जस्स आउयस्स, णामस्त, गोयस्स, एएसिं चउण्ड वि कम्माणं मणूसस्स जहा नेरइयस्स तहा भाणियव्यं, सेसं तं रणिजस्स तहेव दंडओ भाणियव्यो-जाव वेमाणियस्स) हे गौतम ! जिस तरह से नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के एक एक जीव का एक एक जीव प्रदेश ज्ञानावरणीयकर्म के अनन्त अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टितपरिवेष्टित कहा गया है, उसी तरह से नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के एक एक जीव का एक एक जीवप्रदेश दर्शनावरणीय कर्म के अनंत अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टितपरिवेष्टित होता है। (एवं जाव अन्तराइयस्स भाणियत्वं ) इसी तरह से वेदनीय, मोहनीय आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तरायिककर्म के अनन्त अविभागपरिच्छेदों से नरक से लेकर वैमानिक तक के एक २ जीव एक एक जीवप्रदेश आवेष्टितपरिवेष्टि होता है। (नवरं) किन्तु-(वेयणिजस्स, आउयस्स णामस्ल, गोयस्स एएसि चउपण वि कम्माणं मणूसस्स जहा नेरइयस्स ____ मडावीर प्रभुनी उत्तर- एवं जहेव नाणावरणिज्जस्स तहेव दडओ भाणियव्यो जाव वेमाणियस) गीतम! २ शत ना२४थी ६४ वैमानि સુધીના પ્રત્યેક જીવન પ્રત્યેક જીવપ્રદેશ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના અનંત અવિભાગી પરિચ્છેદ વડે આવેષ્ટિત પરિવેષ્ટિત હોય છે, એ જ પ્રમાણે નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના પ્રત્યેક જીવને પ્રત્યેક જીવપ્રદેશ દર્શનાવરણીય કર્મને અનંત અવિભાગી પરિચ્છેદેવડે આવેષ્ટિત પરિવેષ્ટિત હોય છે, એમ સમજવું. (एवं जाव अंतराइयस्स भाणियव्वं) से प्रभारी ना२४थी धन वैमानि પર્યન્તના પ્રત્યેક જીવન પ્રત્યેક જીવપ્રદેશ વેદનીય, મોહનીય, આયુષ્ય, નામ, ત્ર અને અંતરાય કર્મના અવિભાગી પરિછેદોથી આવેષ્ટિત પરિવેષ્ટિતા डाय छे सेभ समापु: "नवर" ५२न्तु ( वेयणिज्जस्स, आउयस्स, णामस्स, गोयस्व, ए ए सि पयह वि कम्माण मणूसस्त जहा नेरहयरस तहा भाणियब्र'
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy