SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ shraन्द्रिका टीका श०८ उ० १० सू० ६ कर्म प्रकृतिनिरूपणम् ५१२ स्यात् नो आवेष्टित परिवेष्टितः, यदि आवेष्टितपरिवेष्टितो नियमात् अनन्तैः । एकैकस्य खलु भदन्त ! नैरयिकस्य एकैको जीवप्रदेशः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः कियद्भिः अविभागपरिच्छेदैः आवेष्टितपरिवेष्टितः ? गौतम ! नियमात् अनन्तै' यथा नैरयिकस्य एवं यावत् वैमानिकस्य, नवर मनुष्यस्य यथा जीवस्य एकैकस्य रिच्छेदों से आवेष्टितपरिवेष्टित हो रहा है ? ( गोयमा) हे गौतम ! ( सिय आवेदियपरिवेढिए, सिय नो आवेढियपरिवेढिए) एक २ जीव का एक एक प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग परिच्छेदो से कदाचित् आवेष्टितपरिवेष्टित होता भी है और कदाचित् आवेष्टिन परिवेष्टित नहीं भी होता है । (जड़ आवेढियपरिवेढिए नियमा अणतेहिं ) यदि वह आवेष्टित परिवेष्टित हो तो नियम से ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्त अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित रहा करता है । ( एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावर णिजस्स कम्मस्स केवहएहिं अविभागपलिच्छेएहि आवेदियपरिवेढिए) हे भदंत | एक एक नैरयिक का एक एक जीव प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित हो रहा है ? ( गोयमा ! नियमा अणतेहिं) हे गौतम! एक एक नैरयिक का एक एक जीव प्रदेश नियम से ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्तप्रदेशों से आवेष्टित परिवेष्टित એક જીવના એક એક જીવપ્રદેશ જ્ઞાનાવરણીય કમ ના કેટલા અવિભાગી परिछे हो साथै यावेष्टित परिवेष्टित यह रह्यो होय छे ? ( गोयमा ! ) हे गौतम ! (सिय आवेढियपरिवेढिय, सिय नो आवेढियपरिवेढिए ) भेड मे જીવના એક એક પ્રદેશ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના અતિભાગી પરિચ્છેદની સાથે કયારેક આવેષ્ટિત પરિવેષ્ટિત હાય છે અને કયારેક આવેષ્ટિત પરિવષ્ટિત नथी पण होतो. ( जइ अ'वेदिय परिवेढिए नियमा अण ते हि ) ले ते खावे. ષ્ટિત પરિવેષ્ટિત હાય તેા નિયમથી જ જ્ઞાનાવરણીય કર્માંના અનત અવિભાગી પરિચ્છેદની સાથે આવેષ્ટિત પરિવેષ્ટિત રહ્યા કરે છે. ( एगमेगस्स णं भवे ! नेरइयरस एगमेगे जीवपए से णाणावर णिज्जस्म कम्मस्स देवइएहिं अविभागपलिच्छेएहिं आवेदियपरिवेढिए ? ) हे लहन्त ! भेड भेड નારક જીવને એક એક જીવપ્રદેશ જ્ઞાનાવણીય કર્મના કેટલા અવિભાગી परि होनी साथै आवेष्टित परिवेष्टित थ रह्यो होय छे ? ( गोयमा ! नियमा अण तेहिं ) हे गौतम! ! ये ना नो भे! प्रदेश નિયમથી જ જ્ઞાનાવરણીય ક્રમના અનત અવિભાગી પરિચ્છેદેની સાથે આવે
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy