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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका शे० ८ उ०८ सू०१ प्रत्यनीकस्वरूपनिरूपणम् "3 " लोगपडिणीर, परलोगपडिणीए, दुहओलोगपडिणीए ' तद्यथा - इहलोकमत्यनीकः, परलोकप्रत्यनीकः, द्विघातो लोकप्रत्यनीकः, तत्र इहलोकस्य प्रत्यक्षस्य मानुपत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीको विरोधी इन्द्रियार्थमतिकूलकारित्वात् पञ्चाग्नितपस्वि वद् इहलोकमत्यनीकः उच्यते, परलोकस्य जन्मान्तरस्य प्रत्यनीकः विरोधी इन्द्रि यार्थतत्परत्वात् परलोकप्रत्यनीकः, द्विधातोलोकस्य उभय लोकस्य प्रत्यनीकश्च स्तेयादिभिरिन्द्रियार्थसाधनतत्परो द्विधातोलोकमत्यनीकः उच्यते, गौतमः पृच्छतिसमूहं णं भंते ! पडुच्च कइ पडिणीया पण्णत्ता ? ' हे भदन्त ! समूहं श्रमणसमुदायं खलु प्रतीत्य- आश्रित्य कति कियन्तः प्रत्यनीकाः विरोधिनः प्रज्ञप्ताः १ भगवानाह - ' गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता ' हे गौतम ! त्रयः प्रत्यनीकाः जहा ) जैसे ( इहलोगपडिणीए, परलोगपडिणीए, दुहओ लोगपडिणीए ) इहलोक प्रत्यनीक परलोकप्रत्यनीक, उभयलोकप्रत्यनीक, इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारी होने से पञ्चाग्नि तापते हैं वह इहलोकप्रत्यनीक है। तात्पर्य यह है कि- इन्द्रियादिक से प्रतिकूल अज्ञानमूलक कष्टाचरण करने वाला जो जीव है वह इहलोक प्रत्यनीक है क्यों कि ऐसी क्रियाएं प्रत्यक्षभूत इस मानुष पर्याय के विरुद्ध हैं । इन्द्रियों के विषयों में सदा तत्पर रहने वाला जीव परलोकप्रत्यनीक है चोरी आदि कुकर्मों द्वारा इन्द्रियों के विषय को पोषण करने में तत्पर बना रहने वाला जीव उभयलोक - प्रत्यनीक है। अब गौतम प्रभुसे ऐसा पूछते हैं - ( समूहण्णं अंते ! पडुच्च कद पडिणीया पत्ता ) हे भदन्त । समूह को - श्रमण समुदाय को लेकर के कितने प्रत्यनीक-विरोधी कहे गये हैं ? अर्थात् श्रमणसमुदाय के कितने विरोधी कहे गये हैं- इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ) हे " व " इइलोगपडिणीए, परलोग पडिणीए, दुहओलोग पडि• त जहा ૧ ઈહલોકપ્રત્યેનીક, ૨ પરલોકપ્રત્યેનીક, ૩ ઉભયલોકપ્રત્યેનીક. જે જીવ ઇન્દ્રિયેાવડે પ્રતિકુળ અજ્ઞાનમૂલક કષ્ટાચરણ કરે છે, એવા જીવેદને ઇહલોક પ્રત્યેનીક કહે છે, કારણ કે એવી ક્રિયાઓ પ્રત્યક્ષભૂત આ મનુષ્યપર્યાયની વિરૂદ્ધ હોય છે. 66 णीए ܕܕ ११ ઈન્દ્રિયેાના વિષયેામાં સદા પ્રવૃત્ત રહેનારા જીવ પરલોક પ્રત્યેનીક હાય છે. ચારી થ્યાદિ કુકર્મો વડે ઇન્દ્રિયાના વિષયેને પાષનારા જીવ ઉભયલેક પ્રત્યનીક કહેવાય છે. હવે ગૌતમરવામી સાહુ પ્રત્યેનીકની અપેક્ષાએ મહાવીરપ્રભુને આ પ્રમાણે अश्न पूछे छे - " समूहष्ण भते । पडुच्च कद्दू पडिणीया पण्णत्ता ?” हे लहन्त ! શ્રમણુ સમુદાયની અપેક્ષાએ પ્રત્યેનીક ( વિધી ) કેટલા પ્રકાર કહ્યા છે ?
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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