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________________ प्रमेयद्रिका टीका २०८ ३०९ सू० ३ प्रयोगवन्यनिरूपणम् २१५ 3 प्रत्ययो यत्र स एव प्रत्युत्पन्नम योगप्रत्ययिक इत्यर्थः गौतमः पृच्छति -' से कि तं पुत्रपओगपच्चइए ? ' हे भदन्त ! अथ कः किस्वरूपः स पूर्वोक्तः पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह - ' पुत्रप्पओगपच्चइए जं णं नेरइयाण, संसारव स्थाणं सजीवाणं, तत्थ तत्थ तेसु तेसु कारणेसु समोहणमाणाणं जीवध्वसाणं बंधे समुपज्ज, सेत्तं पुत्रप्पओ गपच्चइए ' हे गौतम! पूर्वप्रयोगप्रत्ययिको यत् खलु नैरथिकाणाम्, संसारावस्थानानाम्, सर्वजीवानाम् वत्र क्षेत्रेषु इत्यर्थः, एतेन समुद्घातकरणक्षेत्राणां बाहुल्यमुक्तम् तेषु तेषु कारणेषु, एतेन समुद्घातकारकारण होता है वही प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिक बंध है। इसी बात को गौतम प्रभु से पूछते हैं - ( से किं तं पुष्पओगपच्चइए ) हे भदन्त ! जो शरीर बन्ध पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक होता है उसका क्या स्वरूप है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( पुव्वप्पओगपच्चइए जं णं तेरइयाणं संसार स्थाणं सव्यजीवाणं तत्थ तत्थ तेसु तेसु कारणेसु समोहणमाणाणं tarurari वधे समुप्पजह से प्तं पुण्वपओगपच्चइए) हे गौतम | जो उन उन क्षेत्रोंमें, उन उन कारणों के होने पर समुद्घात के कारणभूत वेदना आदि कारणोंके होने पर समुद्घात करते समय शरीर से बाहर fragदेशों को निकालने रूप समुद्घात करते समय, नैरधिक एवं सर्व संसारी जीवों के जीवप्रदेशों का जो बंध रचनादि विशेष होता है वह पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक शरीर बंध है । 44 तत्र तत्र क्षेत्रेषु " ऐसा जो यहां पर कहा गया है उससे समुद्घात करने के क्षेत्रोंकी बहुलता कही गई પ્રત્યેાગ જે શરીર અંધમાં કાણુરૂપ હાય છે, તે શરીર ખધને પ્રત્યુપન્ન પ્રયાગ પ્રત્યયિક શરીર મધ કહે છે. ये बात गौतम स्वामी या प्रश्न द्वारा अलुने पूछे छे -" से किं स पुव्ययोगपच्चइए ?" डे लहन्त ! ने शरीर अध पूर्व प्रयोग अत्यधिक होय छे, तेनु हे स्व३५ छे ? महावीर अलुना उत्तर- ( पुव्वप ओगपच्चइए जं णं नेरइयाण संसार वत्थाण' सव्वजीवाण' तत्थ तत्थ तेसु देसु कारणेसु समोहणमाणाण जीवप्पपसाण पंचे समुपज्ज, सेप्त पुव्वपओगपच्चइए ) हे गौतम । ते ते क्षेत्रम તે તે કારણેા ઉદ્દભવવાને કારણે સમુદ્ધાતના કારણરૂપ-વેદના આદિ કારણેાના હાવાથી સમુધાત કરતી વખતે-શરીરની ખહાર છપ્રદેશાને કાઢવારૂપ સમુદ ઘાત કરવાના સમયે, નારક અને સર્વ સ‘સારી જીવેાના જીવપ્રદેશેાના જે અંધ ( રચનાદિ વિશેષ ) થાય છે, તેને પૂર્વપ્રયાગ પ્રત્યયિક શરીર ખંધ કહે छे. " तत्र तत्र क्षेत्रेषु " या सूत्रांश द्वारा समुद्घात रवाना क्षेत्रानी महुलता
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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