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________________ ७९८ " 6 • भगवतीसू अविरताः, यावत् अप्रतिहतपापकर्माणः, सक्रियाः, अमवृताः, एकान्तदण्डाः, एकान्तबालाः अत्यन्ताज्ञाश्वापि भवथ, 'तएणं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एव वयासी' ततःखलु ते स्थविरा: भगवन्तस्तान् अन्ययूथिकान - अन्यतीर्थी - कान् एव ं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषुः - 'नोखलु अजो ? अम्हे रीयं रीयसाणा पुढवि पेच्चेमो, अभिहणामो जात्र उद्दवेमो' हे आर्याः ! नो खलु नैव किल त्रय रीत गमन रीयमाणाः गच्छन्तः गमनं कुर्वाणाः पृथीवी पिच्चयामः पीडयामः, पिंम इत्यर्थः, अभिहन्मः यावत्-वर्तयामः लेपयामः, संघातयामः, संघट्टयामः परितापयामः क्लमयाम, उपद्रवास, 'अम्हेणं अज्जो !' यं रीयमाणा काय वा, जोयं वा, रीयं वा पडुच देस देसेण व्यामो, पएसं एकान्ततः - सर्वथा-वाल अज्ञ भी हैं | यावत् ' शब्द से यहां पूर्वोक्त अभिघ्नन्तः ' आदि पाठ गृहीत हुआ है । नएणं ते येग भगवतो ते अन्न थिए एवं वयासी अन्यपृथिकों की ऐमी बात जब उन स्थविर भगवन्तों ने सुनी - तब उन्हों ने उनसे ऐसा कहा- 'नो खलु अज्जो ! अम्हे रीय रीयमाणा पुर्वि पेचेमो, अभिहणामो, जाव उवद्दवेमो ' हे आर्यो ! जब हम लोग चलते हैंत चलते समय पृथिवी को पीसते हुए नहीं चलते हैं, पैरों के आघात से उसे चोट नहीं पहुँचाते हैं, चरणों के आवान से उसे चूर्ण २ नहीं करते हैं, भूमि में भूमि को नहीं मिलाते हैं, उसे संघ ट्टित नहीं करते हैं, सब ओर से उसे सतापयुक्त नहीं करते हैं. मारणान्तिक अवस्था में उसे नहीं पहुँचाते हैं और न उसे हम लोग मारते ही हैं, 'अम्हेण हम तो अज्जो' हे आर्यो ! ' रीयं रीयસેવન કરેા છે! તેથી તમે અસ યત અને અવિરત છે અને એકાન્તબાલ-અજ્ઞ (સવ થા ज्ञान रहित) पण छे। “यावत्" ही सही 'अभिघ्नन्तः' हि युर्वोत या ग्रहण थयो छे' तरणं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी' તે અન્ય મતવાદીઓની આ પ્રકારની વાત સાભળીને તે સ્થવિર ભગવ તાએ તેમને આ अमाणे 'धुं- 'नो खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढत्रिं पेच्चेमो, अभिहणामो जात्र उद्दवेमो' हे मार्यो । क्यारे अभे यात्री छीमे, त्यारे सभे પૃથ્વીકાયિકાને દખાવતા ચાલતા નથી, પગના અ ઘાતથી અમે તેમને આઘાત પહેાચાડતા નથી, તેને ચગદીને તેના ચૂર ચૂરા કરતા નથી, તેમને એકત્રિત કરતા નથી, તેમને સ ટ્ટિત કરતા નથી, તેમને સતાપ પહેાંચાડતા નથી, તેમને મારણાન્તિક અવસ્થામા भूस्ता नथी मने तेभने भारता पशु नथी 'अहेण" सभे तो 'अज्जो !' हे मार्यो ! ,
SR No.009316
Book TitleBhagwati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages811
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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