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________________ भगवतीसूत्रों गौतम ! आराधकः, नो विराधकः, स च संपस्थितः संप्राप्तः आत्मना च, एवं संप्राप्तेनापि चत्वार आलापकाः भणितव्याः, यथैव असंप्राप्तेन, निम्र न्थेन च हि विचारभूमि वा निष्क्रान्तेन अन्यतरद् अकृत्यस्थानं प्रतिसेवितम्, तस्य खलु एव भवति-इहैव तावद् अहम् एवम्, अत्रापि एते चैव अष्ट आलापकाः हे गौतम ! (आराहए नो विराहए) वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं। (से य संपट्टिए संपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तेण वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा जहेव असंपत्तेणं) वह निर्ग्रन्थ स्थविरों के पास जावे और पहुँचते ही वह सूक हो जावे तो ऐसी स्थिति में वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? इत्यादि संप्राप्तके चार आलापक असंप्राप्तके चार आलापकों की तरह कह लेना चाहिये ? (णिग्गथेण य बहिया वि यारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खंतेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए तरलणं एवं अवइ-इहेद ताव अहं एवं एत्थ वि एए चेव अट्ठ आला. वगा भाणियन्वा जाव नो विराहए) किसी निर्ग्रन्थ ने बाहर नीहार भूमि की ओर अथवा विहार भूमि की ओर जाते हुए किसी एक अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन कर लिया हो बाद में उसके मन में ऐसा विचार आवे कि मैं पहिले यहीं पर उस अकृत्यस्थान की आलोचना आदि करू इत्यादि पहले की तरह यहां पर भी ये ही आठ आलापक कहना चाहिये, यावत् वह निग्रन्थ चिराधक नहीं है। उपाय 3 पिराध | ( गोयमा! आराहए नो विराहए ) है गौतम! तन माराध / गाय, विशष गाय नही. (सेय संपडिए सपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तण वि चत्तारि आलावागा भाणियव्या जहेव असंपत्तेणं) निय સ્થાવિરાની પાસે પહોંચતા જ મૂક થઈ જાય, તો તેને આરાધક કહેવાય કે વિરાધક? આ રીતે ત્યાં અસંપ્રાપ્ત ન પહોંચેલા) નિગ્રંથ વિષેના જેવા ચાર આલાપકે કહેવામાં આવ્યા છે, એવાં જ ચાર આલાપ સંપ્રાપ્ત (ત્યાં પહોંચેલા) નિર્ગથ વિષે પણ કહેવા नेय (णिग्गंथेण य वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खतेणं अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए तस्सणं एवं भवड-इहेच ताव अह एवं एत्थं वि एए वेव अट्ठ आलाचगा भाणियव्या जाव नो विराहए) नियय मार નીહારભૂમિ તરફ અથવા વિહાર ભૂમિ તરફ જતા કોઈ એક અકૃત્યસ્થાનનું પ્રતિસેવન કરી નાખ્યું. ત્યાર બાદ તેના મનમાં એવો વિચાર આવે છે કે હું પહેલાં અહીંજ તે અકૃત્યસ્થાનની આલેચન આદિ કરી લઉં. અહીં પણ આગળ મુજબ આઠ આલાપક કહેવા જોઈએ. “તે નિગ્રંથ વિરાધક ન ગણાય,' ત્યાં સુધીનું સમસ્ત કથન અહીં ગ્રહણ
SR No.009316
Book TitleBhagwati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages811
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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