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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ. १ सू.८ अनगारविशेषवक्तव्यतानिरूपणम् ३०३ क्रिया क्रियते, यस्य खलु क्रोध - मान-माया - लोभा अव्युच्छिन्ना भवन्ति, तस्य खल सांपरायिकी क्रिया क्रियते, न ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते, यथासूत्रं यतः - ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते, उत्सूत्रं रयतः सांपरायिकी क्रिया क्रियते, स खलु उत्सूत्रमेव यति, तत् तेनार्थेन ॥ म्र० ८ ॥ वहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोहमाण- माया लोभा अवोच्छिन्ना भवंति, तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ णो इरिया वहिया किरिया कज्जइ) जिस के क्रोध, मान, माया और लोभ ये क्षीण हो गये होते हैं ऐसे साधु को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं लगती है । तथा जिस के क्रोध, मान, माया, लोभ ये क्षीण नहीं हुए होते हैं ऐसे साधु को सांपरायिकी क्रिया लगती है, ऐयोपथिकी क्रिया नहीं लगती है । ( अासुतं रीयमाणस्स ईरिया बहिया किरिया कज्जइ, उस्तरीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ) सूत्र के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले साधु को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है और जो साधु सूत्र के विरुद्ध अपनी प्रवृत्ति चालू रखता है उसे सांपरायिकी क्रिया लगती है । (सेणं उत्तमेव रिया से तेणद्वेणं ० ) इस तरह उपयोगरहित साधु सूत्र विरुद्ध प्रवृत्ति करता है इसलिये हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि ऐसे साधु को ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती, प्रत्युत सांपरायिकी क्रिया ही लगती है । णो संपराइया किरिया कज्जइ, जस्सणं कोह, माण, माया, लोभा अवोच्छिन्ना भवति, तस्स णं सपराइया किरिया कज्जइ, णो इरियावड़िया किरिया कज्जइ) જેના ધ, માન, માયા અને લાભ ક્ષીણ થઇ ગયા હૈાય છે એવા સાધુને અય્યપથિકી ક્રિયા લાગે છે—સાપરાયિકી ક્રિયા લાગતી નથી. પણ જે સાધુના ક્રોધ, માન, માયા અને લેાભ ક્ષીણ થયા હાતા નથી એવા સાધુને સાંપરાયિકી ક્રિયા લાગે છે એ†પથિકી झिया लागती नथी. (अहासुतं रीयमाणस्स ईरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्मृतं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ) सूत्रना महेश अनुसार प्रवृत्ति કરનાર સાધુને ઐય્યચિકી ક્રિયા લાગે છે, પણ જે સાધુ સૂત્રના આદેશથી વિરૂદ્ધ अवृत्ति उरे छे, तेने सांयरायिडी डिया लागे छे. (सेणं उस्मुत्तमेव रियर से तेणट्टेणं) આ પ્રકારની ઉપયેગ રહિત અવસ્થાવાળા સાધુ સુત્રના આદેશથી વિરૂદ્ધ હોય એવી પ્રવૃત્તિ કરે છે. હે ગૌતમ ! તે કારણે મે એવું કહ્યું છે કે એવા સાધુને ઐાઁપથિકી ક્રિયા લાગતી નથી, પણ સાંપરાચિકી ક્રિયા લાગે છે.
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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