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________________ ૨૭ઢ भगवती सूत्रे समदेशाश्च अप्रदेशाच, इति एकभङ्गवन्त एव । सिद्धपदं त्वत्र न वक्तव्यम् सिद्धानां भव्याभव्यत्वविशेषणानुपलब्धेः । ' णोभवसिद्धिय - गोअभवसिद्धिगजीवसिद्धेर्हि तियभंगो' नो भवसिद्धिक-नो अभवसिद्धिक-जीव सिद्धयोस्त्रयो भङ्गा वेदितव्याः, तथाहि - एतद् / नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक विशेषणविशिटम् उपर्युक्त जीवसिद्धदण्डकद्वयं पठितव्यम् एकत्वाभिलाषाकारथेत्थम् -' णोभवसिद्धिय - णोअभवसिद्धिएणं भंते ! जीवे किं सपएसे, अपए से ? गोयमा ! सिय सपए से सिय अपएसे ' इत्यादि । एवं बहुत्वदण्डकालापोऽपि वक्तव्यः, के ये एक भंगवाले ही कहे गये हैं। यहां भव्य अभव्य के प्रकरण में सिद्धपद नहीं कहना चाहिये क्यों कि सिद्धों में भव्य अभव्य इन दोनों विशेषणों का अभाव हो गया है । ( णो भवसिद्धिय-णो अभवसिद्धिय - जीवसिद्धेहिं तियभंगो " नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिक जीव एवं सिद्धों में तीन भंग होते हैं - तात्पर्य यह है कि " भव्य नहीं, अभव्य नहीं " ऐसे विशेषणों वाले जीवादिक दो दण्डक कहना चाहिये इनसे लगता हुआ एकत्व अभिलाप का आकार इस प्रकार से हैं - ( णो भवमिद्धिय णो अभवसिद्धिएणं भंते ! जीवे किं सपए से अपए से 2 ) गौतम यहां ऐसा प्रश्न किया है कि हे भदन्त ! जो जीव न भवसिद्धिक है और न अभवसिद्धिक है ऐसा वह जीव क्या सप्रदेश होता है या अप्रदेश होता है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि ( गोयमा ) हे गौतम । ( सिय सपए से सिय अपए से ) इत्यादि - ऐसा जीव कदाचित् सप्रदेश होता है और कदाचित् अप्रदेश होता है । इसी तरह से बहु બ્ય અભષ્યના પ્રકરણમાં સિદ્ધના સમાવેશ કરવા જોઈએ નહી, કારણ કે સિદ્ધમાં ભવ્ય અને ભવ્ય એ મને વિશેષણેા સ`ભવી શકતાજ નથી. “ નો भवसिद्धिय, णो अभवसिद्धिय-जीव सिद्धेह' तियभंगो " नो लवसिद्धि, ना અભવસિદ્ધિક જીવ અને સિદ્ધોમાં ત્રણ ભંગ થાય છે. આ કથનનુ તાત્પય એ છે કે ભવ્ય નહી', અલભ્ય નહી' ” એવાં વિશેષણેાવાળાં જીવાદિક એ દ'ડક કહેવા જોઈએ. તેમને લાગુ પડતા એકત્વ વિષયક અભિલાપ આ પ્રમાણે छे - " णो भवसिद्धिय णो अभवसिद्धिएणं भते । जीवे किं सपएसे अपए से १" ગૌતમસ્વામી અહીં એવા પ્રશ્ન કરે છે કે “હે ભદન્ત ! જે જીત્ર ન ભત્રસિદ્ધિક અને ન અભવસિદ્ધિક છે, તે શું સપ્રદેશ હાય છે કે અપ્રદેશ હાય છે ? તેના જવાબ આપતાં મહાવીરપ્રભુ કહે सपएसे, सिय अपए से " मेव। છે " गोवमा ! " हे गौतम! " सिय श्यारेड सप्रदेश होय छे भने प्यारेड -
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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